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बेइम्तियाज़ों से और उम्मीद भी क्या लगाई जाए? मखलुख

बेइम्तियाज़ों से और उम्मीद भी क्या लगाई जाए?
मखलुखातों का ओहदा उन्हें समझ नहीं आता,
बेजुबानों पर अपना कहर दिन-रात बरसाते हैं
कभी अपना समझकर तेरा ये बेअदब सलूक संभल क्यों नहीं जाता!
फ़ाख़िर इंसान अपनी हदें तोड़ता है
महज एक फरेबी इमारत बनाने में,
संभल जा अब भी इन बेमतलब की फिरौतियों से
वरना देर ना लगेगी इन जुल्मों की ज़िल्लत उठाने में। #जिल्लत
बेइम्तियाज़ों से और उम्मीद भी क्या लगाई जाए?
मखलुखातों का ओहदा उन्हें समझ नहीं आता,
बेजुबानों पर अपना कहर दिन-रात बरसाते हैं
कभी अपना समझकर तेरा ये बेअदब सलूक संभल क्यों नहीं जाता!
फ़ाख़िर इंसान अपनी हदें तोड़ता है
महज एक फरेबी इमारत बनाने में,
संभल जा अब भी इन बेमतलब की फिरौतियों से
वरना देर ना लगेगी इन जुल्मों की ज़िल्लत उठाने में। #जिल्लत