सिरहाने रखा वो ख़त जब मैं, भूल आया था! सूरज भी ग़ुस्से से उबल रहा था, निगाहेँ चुराकर वो चाँद भी छुप रहा था, सिरहाने रखा वो ख़त जब मैं, भूल आया था! सामने वो खड़े थें मग़र अल्फ़ाज़ भूल रहा था मैं, जैसे ! सारे अल्फ़ाज उसी ख़त में, मैं भूल आया था। गुस्से से सिकुड़ रही थी चाय की वो ऊपरी परत भी, बहाने से मैं, कुछ पल बिताने आया था। सिरहाने रखा वो ख़त जब मैं, भूल आया था! उस दिन भी क़ुछ कह ना सका, शायद! टूटकर सारा प्यार उस खत में, मैं छोड़ आया था, सिरहाने रखा वो ख़त जब मैं, भूल आया था! - वतन सिरहाने रखा वो ख़त