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एक अजीब सी पीड़ा खाए जा रही है कैसे औ किसको बताऊं

एक अजीब सी पीड़ा खाए जा रही है 
कैसे औ किसको बताऊं रुलाए जा रही है
एक अजीब सी.....
यादों में खोऊ तो बरसती हैं आखें
बरसती हैं आखें तो तरसती है यादें
उम्मीदों की दुल्हन जिलाये जा रही है
एक अजीब सी......
सुनता तो है वो मगर मौन होकर
चुपके से आते चले जाते रोकर
समय कैसी हरकत कराए जा रही है
एक अजीब सी......
सुलझती है उलझन मगर कैद करके
सज़ा देती खुलकर मगर अपना बनके
मैं हूं "सूर्य" फिर भी बनाए जा रही है
एक अजीब सी.......

©R K Mishra " सूर्य "
  #“पीड़ा”

#“पीड़ा” #कविता

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