चलता जा रहा हूं, चलता जा रहा हूं। न जाने किस किस से टकरा रहा हूं। आकांक्षाओं की मिट्टी में, उम्मीदों के बीज उगा रहा हूं। इस ब्रह्माण्ड के रत्नाकर से, अपने लिए कुछ बूंदे चुरा रहा हूं। तिमिर अंधकार के जंगल में रोशनी धवल फैला रहा हूं। उद्वेलित अशांत समाज को, अब मै दर्पण दिखा रहा हूं। ना किसी का मोह मुझे, ना किसिसे ममता है, मै बनकर किनारा तटस्थ, सबको रास्ता बता रहा हूं। स्वेद सिंचित कर्म पथ पर, आत्म उत्सर्ग करता जा रहा हूं। चलता जा रहा हूं.......... चलेवती चलेवेती