अधुरा अंधेरा अंधेरे कमरे में जैसे दीप जलाने को कोई तीली सुलगाता होगा ठीक वैसा ही लगता है जब कविता लिखने बैठता हूँ , जैसे जैसे कमरे में उजाला अंधरे को हटा रहा होता है वैसे ही लगता है जब शब्द कागज पर उतरने लगते हैं रोशनी व्याप्त होते ही कमरे में रखी वस्तुएं दिखने लगती ठीक वैसे ही कविता की पंक्तियाँ आकार लेने लगती है हवा से कई बार लौ कम होने लगती तो लगता कमरा हिल रहा हो तभी अनिगनत भाव विचार कवि के मन को हिलोर से भर देते हैं शब्दो में होड़ सी मच जाती है की मुझे कागज पर उतारा जाए कई बार कुछ शब्द नाराज़ हो जाते है और वो कविता किसी नोटपेड में अधुरी पड़ी रह जाती है । ©Dr.Govind Hersal #candle