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-परम सत्य योगपथ- मन का अस्तित्व आत्मचिंतन नीचे कैप

-परम सत्य योगपथ-
मन का अस्तित्व
आत्मचिंतन नीचे कैप्शन में... मन जब तक है तब तक प्यासा ही रहेगा। मन का होना ही प्यास है। अतृप्ति मन का स्वभाव है। मन कभी तृप्त हुआ, ऐसा सुना नहीं। मन कभी तृप्त होगा, ऐसा संभव नहीं। मन तृप्त नहीं हो सकता है। इसीलिए तो संसार में कोई तृप्ति नहीं है, क्योंकि संसार मन का फैलाव है। मन का विस्तार है।

संसार यानी मन। संसार यानी मन के माध्यम से तृप्ति की खोज। जो नहीं हो सकता, उसे करने की चेष्टा। असंभव के लिए प्रयास। जो अस्तित्व के गणित में ही नहीं है, उसकी खोज। इसलिए जन्मों —जन्मों तक भी खोजो, लाख रोओ—धोओ, अंतर न पड़ेगा। मन का स्वभाव प्यास है। जैसे आग गरम, ऐसा मन प्यासा है।

मन को प्यासा देखकर लगता है कि शायद मन तृप्त हो सके। भाषा के कारण भूल पैदा होती है—हम कहते हैं, मन प्यासा। तो लगता है, मन तृप्त भी हो सकेगा। जब प्यासा है तो तृप्त भी हो सकेगा। ठीक—ठीक होगा कहना, अगर हम कहें कि मन प्यास। मन प्यासा, ऐसा नहीं; मन ही प्यास है। प्यास और मन एक ही बात के दो नाम हैं। तब चीजें ज्यादा साफ होंगी।

तो प्यास तो कभी भी तृप्त नहीं हो सकती। प्यास का तो स्वभाव ही प्यास है। जब तृप्ति होगी तो प्यास न रहेगी। ऐसा थोड़े ही कहोगे—प्यास तृप्त हो गयी। ऐसा ही कहोगे, अब प्यास न रही। प्यास की तृप्ति का अर्थ होता है, प्यास का न हो जाना। और मन भी वहीं तृप्त होता है जहां नहीं हो जाता है। जहां मन मिटा, वहां तृप्ति। जब तक मन है, तब तक मन की आग जलती रहेगी। और हम इस मन की आग में खूब—खूब घृत डालते हैं। नयी—नयी आकांक्षाओं के, नयी—नयी वासनाओं के, नयी—नयी योजनाओं के। हम ईंधन को और भी प्रज्वलित करते रहते हैं।
-परम सत्य योगपथ-
मन का अस्तित्व
आत्मचिंतन नीचे कैप्शन में... मन जब तक है तब तक प्यासा ही रहेगा। मन का होना ही प्यास है। अतृप्ति मन का स्वभाव है। मन कभी तृप्त हुआ, ऐसा सुना नहीं। मन कभी तृप्त होगा, ऐसा संभव नहीं। मन तृप्त नहीं हो सकता है। इसीलिए तो संसार में कोई तृप्ति नहीं है, क्योंकि संसार मन का फैलाव है। मन का विस्तार है।

संसार यानी मन। संसार यानी मन के माध्यम से तृप्ति की खोज। जो नहीं हो सकता, उसे करने की चेष्टा। असंभव के लिए प्रयास। जो अस्तित्व के गणित में ही नहीं है, उसकी खोज। इसलिए जन्मों —जन्मों तक भी खोजो, लाख रोओ—धोओ, अंतर न पड़ेगा। मन का स्वभाव प्यास है। जैसे आग गरम, ऐसा मन प्यासा है।

मन को प्यासा देखकर लगता है कि शायद मन तृप्त हो सके। भाषा के कारण भूल पैदा होती है—हम कहते हैं, मन प्यासा। तो लगता है, मन तृप्त भी हो सकेगा। जब प्यासा है तो तृप्त भी हो सकेगा। ठीक—ठीक होगा कहना, अगर हम कहें कि मन प्यास। मन प्यासा, ऐसा नहीं; मन ही प्यास है। प्यास और मन एक ही बात के दो नाम हैं। तब चीजें ज्यादा साफ होंगी।

तो प्यास तो कभी भी तृप्त नहीं हो सकती। प्यास का तो स्वभाव ही प्यास है। जब तृप्ति होगी तो प्यास न रहेगी। ऐसा थोड़े ही कहोगे—प्यास तृप्त हो गयी। ऐसा ही कहोगे, अब प्यास न रही। प्यास की तृप्ति का अर्थ होता है, प्यास का न हो जाना। और मन भी वहीं तृप्त होता है जहां नहीं हो जाता है। जहां मन मिटा, वहां तृप्ति। जब तक मन है, तब तक मन की आग जलती रहेगी। और हम इस मन की आग में खूब—खूब घृत डालते हैं। नयी—नयी आकांक्षाओं के, नयी—नयी वासनाओं के, नयी—नयी योजनाओं के। हम ईंधन को और भी प्रज्वलित करते रहते हैं।
amaranand9347

Amar Anand

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