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एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: तृतीय (प्रथम)) अनुशिर

एक नामुकम्मल दास्तां

(भाग: तृतीय (प्रथम))

अनुशिर्षक में पढ़ें माँ ने उसे कम से कम पच्चीस बार फ़ोन मिलाया होगा। हर बार एक ही ज़वाब, "जिस ग्राहक से आप बात करना चाह रहे हैं, वो या तो बंद है या पहुँच से बाहर है" आता था। आज उसका जन्मदिन था। पर वो तो सुबह ही घर से निकल गया था ये बोल के कि वो सीधे रात को आयेगा घर और उसका फ़ोन भी दिन भर बंद रहेगा। क्या करता वो किसी से भी जन्मदिन की बधाई ले कर। वो तो कब का अंदर से मर चुका था। पूरे दो महीने और सात दिन हो गये थे। बस निस्प्राण ही तो था। क्यूँकी उसकी जान तो उसे छोड़ कर कब का जा चुकी थी। इसिलिए उसने अपना फ़ोन रात साढ़े ग्यारह बजे से ही बंद कर रखा था ताकी कोई उसे बधाई ना दे सके। माँ को पता था, सब पता था। वो कभी कुछ छुपाता ही नहीं था। हर एक बात उससे जुड़ी हुई, ये तो वो खुद माँ को बता देता था या उन्हे खुद पता चल जाता था। और अपने बेटे के मन को वो बहुत अच्छे से जानती थी। इसिलिए चिंता लगी रहती थी पर किसी से कुछ ना कहती थी। कहती थी क्या, बेटे के आगे मज़्बूर थी। बड़ा बेटा था घर का वो और सबका दुलारा। इसिलिए वो बार-बार फ़ोन किये जा रही थी। बस इसी बात की चिंता थी उन्हे कि उनका बेटा कुछ गलत ना कर ले। अगर उसे कुछ हो गया तो कैसे जीयेगी वो माँ जिसने ज़िंदगी में सबसे ज्यादा प्यार उसी से किया था। पर क्या उनका डर आज सच होने वाला था? निकला जब था घर से तो बहुत उदास और परेशान था वो। ना जाने आज का दिन क्या दिन दिखाने वाला था।

वो घर से निकल गया था सुबह ही। उसका किसी से बात करने का मन ही नहीं था। वो नहीं चाहता था कि कोई भी खुशी उसके आस-पास भी फटके। क्यूँकी रूह के बिना शरीर जिंदा लाश ही तो होती है। और लाशों को खुशी महसूस नहीं होती। पर जा कहाँ रहा था वो। क्या उसे पता था कि उसे जाना कहाँ है या करना क्या है? शायद पता था, तभी तो वो घर से निकला और बस स्टॉप पर पहुँच गया और एक बस में चढ़ गया। क्या थी उसकी मंजिल? कहाँ जा रहा था वो? ये तो आने वाला पल ही बताने वाला था।

दक्षिनेश्वर मंदिर, काली माँ का, कोलकाता की शान माना जाता है। बहुत ही विशाल मंदिर है ये। और काली माँ का मंदिर होने के साथ-साथ ये बारह महादेव का स्थान भी है। यहाँ मंदिर के प्रांगण में ही भगवान शिव के बारह लिंग बने हुये हैं एक लाईन से। हर लिंग एक छोटे से मंदिर में स्थापित है। एक ही बड़े से मंदिर में एक ओर काली माता की मूर्ती विस्थापित (मंदिर अलग से बना हुआ है) है और दुसरी तरफ महादेव अपनी लीला दर्शाते हैं। सबसे खास बात, ये मंदिर गंगा जी के किनारे बना हुआ है और शिव जी के मंदिर के बगल से एक जगह बनाई हुई है जहाँ से श्रद्धालु गंगा जी के पावन जल से स्नान कर सकते हैं। यहाँ बैठ के मन को असीम शांति का अनुभव होता है। और कहते हैं कि हर किसी को अपनी समस्या का समाधान मिल ही जाता है यहाँ आ कर।

वो वहीं एक किनारे चुप-चाप बैठा था। हाथों में छोटे-छोटे कंकड़नुमा पत्थर लिये वो उन्हे गंगा जी में फेंके जा रहा था। बहुत उथल-पुथल मची हुई थी उसके अशांत मन में। समझ नहीं आ रहा था उसे कि उसके साथ ये क्या हो गया। कैसे वो इस मोड़ पे आ के पहुँच गया। उसके सामने कुछ महीने पहले का वो दृश्य आने लगा जब वो अपनी जान से पहली बार मिला था।
एक नामुकम्मल दास्तां

(भाग: तृतीय (प्रथम))

अनुशिर्षक में पढ़ें माँ ने उसे कम से कम पच्चीस बार फ़ोन मिलाया होगा। हर बार एक ही ज़वाब, "जिस ग्राहक से आप बात करना चाह रहे हैं, वो या तो बंद है या पहुँच से बाहर है" आता था। आज उसका जन्मदिन था। पर वो तो सुबह ही घर से निकल गया था ये बोल के कि वो सीधे रात को आयेगा घर और उसका फ़ोन भी दिन भर बंद रहेगा। क्या करता वो किसी से भी जन्मदिन की बधाई ले कर। वो तो कब का अंदर से मर चुका था। पूरे दो महीने और सात दिन हो गये थे। बस निस्प्राण ही तो था। क्यूँकी उसकी जान तो उसे छोड़ कर कब का जा चुकी थी। इसिलिए उसने अपना फ़ोन रात साढ़े ग्यारह बजे से ही बंद कर रखा था ताकी कोई उसे बधाई ना दे सके। माँ को पता था, सब पता था। वो कभी कुछ छुपाता ही नहीं था। हर एक बात उससे जुड़ी हुई, ये तो वो खुद माँ को बता देता था या उन्हे खुद पता चल जाता था। और अपने बेटे के मन को वो बहुत अच्छे से जानती थी। इसिलिए चिंता लगी रहती थी पर किसी से कुछ ना कहती थी। कहती थी क्या, बेटे के आगे मज़्बूर थी। बड़ा बेटा था घर का वो और सबका दुलारा। इसिलिए वो बार-बार फ़ोन किये जा रही थी। बस इसी बात की चिंता थी उन्हे कि उनका बेटा कुछ गलत ना कर ले। अगर उसे कुछ हो गया तो कैसे जीयेगी वो माँ जिसने ज़िंदगी में सबसे ज्यादा प्यार उसी से किया था। पर क्या उनका डर आज सच होने वाला था? निकला जब था घर से तो बहुत उदास और परेशान था वो। ना जाने आज का दिन क्या दिन दिखाने वाला था।

वो घर से निकल गया था सुबह ही। उसका किसी से बात करने का मन ही नहीं था। वो नहीं चाहता था कि कोई भी खुशी उसके आस-पास भी फटके। क्यूँकी रूह के बिना शरीर जिंदा लाश ही तो होती है। और लाशों को खुशी महसूस नहीं होती। पर जा कहाँ रहा था वो। क्या उसे पता था कि उसे जाना कहाँ है या करना क्या है? शायद पता था, तभी तो वो घर से निकला और बस स्टॉप पर पहुँच गया और एक बस में चढ़ गया। क्या थी उसकी मंजिल? कहाँ जा रहा था वो? ये तो आने वाला पल ही बताने वाला था।

दक्षिनेश्वर मंदिर, काली माँ का, कोलकाता की शान माना जाता है। बहुत ही विशाल मंदिर है ये। और काली माँ का मंदिर होने के साथ-साथ ये बारह महादेव का स्थान भी है। यहाँ मंदिर के प्रांगण में ही भगवान शिव के बारह लिंग बने हुये हैं एक लाईन से। हर लिंग एक छोटे से मंदिर में स्थापित है। एक ही बड़े से मंदिर में एक ओर काली माता की मूर्ती विस्थापित (मंदिर अलग से बना हुआ है) है और दुसरी तरफ महादेव अपनी लीला दर्शाते हैं। सबसे खास बात, ये मंदिर गंगा जी के किनारे बना हुआ है और शिव जी के मंदिर के बगल से एक जगह बनाई हुई है जहाँ से श्रद्धालु गंगा जी के पावन जल से स्नान कर सकते हैं। यहाँ बैठ के मन को असीम शांति का अनुभव होता है। और कहते हैं कि हर किसी को अपनी समस्या का समाधान मिल ही जाता है यहाँ आ कर।

वो वहीं एक किनारे चुप-चाप बैठा था। हाथों में छोटे-छोटे कंकड़नुमा पत्थर लिये वो उन्हे गंगा जी में फेंके जा रहा था। बहुत उथल-पुथल मची हुई थी उसके अशांत मन में। समझ नहीं आ रहा था उसे कि उसके साथ ये क्या हो गया। कैसे वो इस मोड़ पे आ के पहुँच गया। उसके सामने कुछ महीने पहले का वो दृश्य आने लगा जब वो अपनी जान से पहली बार मिला था।