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|| श्री हरि: || 22 - नाम बताओ 'अरे, कौन है? छोड़

|| श्री हरि: ||
22 - नाम बताओ 

'अरे, कौन है? छोड़ भी।' आज तनिक भद्र सखाओं से हटकर तमाल तरु के मूल में आ बैठा था। तमाल की ओट से आकर कन्हाई ने पीछे से उसके दोनों नेत्र अपने करों से बन्द कर लिये भद्र चौंका नहीं; किन्तु उसने अपने दोनों करों से नेत्र बन्द करने वाले के कर कलाइयों से कुछ ऊपर पकड़ लिये।

अब यह स्पर्श भी क्या पहिचानने की अपेक्षा करता है? रुनझुन नूपुर भी बजे थे। बहुत सावधानी से आने पर भी कटि की मणिमेखला में कुछ क्वणन हुआ ही था और नन्दनन्दन के श्री अंग से जो उसकी वनमाला में लगी तुलसी का सौरभ अंग की नीलोत्पल सुरभि से मिलकर आता है, उसे दुर से व्रज के पशु तक पहिचान लेते हैं। भद्र तो  श्याम का अन्तरंग सखा है।

कन्हाई जब झुककर दबे पैर चला था भद्र की ओर, तभी भद्र जान गया था कि उसका कनूँ उसके समीप आ रहा है, किन्तु बिना मुड़े बिना पीछे देखे यह अनजान बना बैठा रहा है, यह देखने के लिए कि श्याम समीप आकर क्या करता है और उस उस नटखट ने समीप आकर सखा के नेत्र बन्द कर लिये हैं। सखा जब उसकी ओर नहीं देखता तो दूसरी ओर क्यों देखे। तब तो उसके नेत्र बन्द रहने चाहिये। तब वह अन्तर्मुख ही रहे, यही अच्छा।
anilsiwach0057

Anil Siwach

New Creator

|| श्री हरि: || 22 - नाम बताओ 'अरे, कौन है? छोड़ भी।' आज तनिक भद्र सखाओं से हटकर तमाल तरु के मूल में आ बैठा था। तमाल की ओट से आकर कन्हाई ने पीछे से उसके दोनों नेत्र अपने करों से बन्द कर लिये भद्र चौंका नहीं; किन्तु उसने अपने दोनों करों से नेत्र बन्द करने वाले के कर कलाइयों से कुछ ऊपर पकड़ लिये। अब यह स्पर्श भी क्या पहिचानने की अपेक्षा करता है? रुनझुन नूपुर भी बजे थे। बहुत सावधानी से आने पर भी कटि की मणिमेखला में कुछ क्वणन हुआ ही था और नन्दनन्दन के श्री अंग से जो उसकी वनमाला में लगी तुलसी का सौरभ अंग की नीलोत्पल सुरभि से मिलकर आता है, उसे दुर से व्रज के पशु तक पहिचान लेते हैं। भद्र तो श्याम का अन्तरंग सखा है। कन्हाई जब झुककर दबे पैर चला था भद्र की ओर, तभी भद्र जान गया था कि उसका कनूँ उसके समीप आ रहा है, किन्तु बिना मुड़े बिना पीछे देखे यह अनजान बना बैठा रहा है, यह देखने के लिए कि श्याम समीप आकर क्या करता है और उस उस नटखट ने समीप आकर सखा के नेत्र बन्द कर लिये हैं। सखा जब उसकी ओर नहीं देखता तो दूसरी ओर क्यों देखे। तब तो उसके नेत्र बन्द रहने चाहिये। तब वह अन्तर्मुख ही रहे, यही अच्छा।

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