बड़े दिनों बाद उन गलियों में आया हूँ कुछ गुजरे पलों की बिखरी किताब लाया हूँ एक बुढ़िया थी जो अक्सर दरवाजे पर बेठा करती थी शहर से आने वाली हर गाड़ी को निहारा करती थी एक बिखरे से कागज पर कुछ नम्बर बताकर हर किसी से फोन मिलाने की अरदास किया करती थी मेने अक्सर उसकी दहलीज पर बिखरते निवालों को देखा था अपनों की याद में बूढी निगाहों को तरसते देखा था पर अफसोस आज उन पेड़ों में पतझड़ आया है शहर से कोई ना मिलने आया है हाल देख उसकी बदहाली का अर्थी पर सजे फूलो में लिपटे कफन में सुलगता उफान आया है #भारद्वाज पुष्कर तड़प तडप तड़प