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मानुष जिस्म से, रूह से हैवान रहा, मै कैसा इंसान

मानुष जिस्म से,  रूह से हैवान रहा,
मै कैसा  इंसान था, उसकी नज़र मे दो मुहा सांप रहा
आस्तीन का़ सांप मैं,  वो मुझे खुदा कहती गयी,
मै राक्षस था,  जिसने पाला उसका काल निकला,
रिसते जज़्बात ज़ाहिर ना हो सके, मै तनहा था..  अश्क ज़ाहिर ना होने दुंगा,
बेख्याली मे भी तेरा ख्याल रहे,  मै मर गया...  जिस्म टूटा पर ज़ाहिर ना होने दुंगा
रूह कै़द तेरी रूह मे रही, मै बेजान रहा, जिस्म टूटता रहा...  पर तेरी हाज़िर मे ज़ाहिर ना होने दुंगा
अब पाप पुण्य का हिसाब करने खुदा आया है,  तू रह हमसे दूर,
  तेरे बिना ख़ुद को संभाला है,
अश्क आंखो से दूर रहेगा... तुझे महसूस कुछ भी ना होने दुंगा..

©Dr. Kritika Joshi (psycwriter)
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