तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ बढ़ रहा है सोचता डरता झिजकता राह-रौ मंज़िलें सम्तें बदलती जा रही हैं रोज़ ओ शब इस भरी दुनिया में है इंसान राह-रौ कुछ तो है जो शहर में फिरता है घबराता हुआ बे-ख़बर वरना भरे जंगल से गुज़रा राह-रौ खिड़कियाँ खुलने लगीं दरवाज़े वा होने लगे जब भी गुज़रा राह से कोई सजीला राह-रौ ख़िज्र की सी उम्र वरना कैसे तन्हा काटते बे-सहारा रास्तों का हैं सहारा राह-रौ बख़्श ही दे कोई शायद गेसुओं की नर्म छाँव हर नई बस्ती में थोड़ी देर ठहरा राह-रौ कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती ‘फ़ुज़ैल’ ज़िंदगी भी है मिसाल-ए-मौज-ए-दरिया राह-रौ - - विपिन वर्मा (लखनवी) 💔💔