शब्दों को मोहब्बत क्या हुई , किताब से , क़लम रूठ के जा बैठी , बोली अब ना करूंगी , तुमको खुद से आज़ाद , फिर देखती हूं , कैसे इश्क़ दिखाओगे तुम किताब से , बस उधर किताब तन्हा , और इधर शब्द क़ैद में , स्याही भी सोचती रही, आखिर कब तलक क़लम खुद को भी तड़पाएगी, और शब्दों को भी बांधकर रख पाएगी । स्याही का भी तो इश्क़ कलम से पुराना था , वह जानती थी , इश्क कैद का नाम नहीं , उसने कलम को समझाया, इश्क का रूहानी मतलब बतलाया , उस रात कलम बहुत रोई , स्याही के साथ , और अपने सारे भावों को , बह जाने दिया , शब्दों के साथ, और कर दिया आज़ाद, शब्दों को खुद से, किताबों से जैसे-जैसे गले लगते जा रहे थे शब्द , इश्क़ की एक नई दास्तां रचते जा रहे थे शब्द । आज भी जब क़लम , अपने प्रेम को याद करके , स्याही से गले मिलके , शब्दों को आजाद करती है , तो किताबों पर एक नई दास्तां रचती है । ©DEAR COMRADE (ANKUR~MISHRA) शब्दों को मोहब्बत क्या हुई , किताब से , क़लम रूठ के जा बैठी , बोली अब ना करूंगी , तुमको खुद से आज़ाद , फिर देखती हूं , कैसे इश्क़ दिखाओगे तुम किताब से , बस उधर किताब तन्हा , और इधर शब्द क़ैद में , स्याही भी सोचती रही, आखिर कब तलक क़लम खुद को भी तड़पाएगी, और शब्दों को भी बांधकर