Nojoto: Largest Storytelling Platform

वो छः साल का बच्चा ~ गद्य उस समय वो छः साल का

वो छः साल का बच्चा


~ गद्य

 उस समय वो छः साल का ही तो था। कौन सुनता उसकी? किसको सुनाता वो? फैसला तो हो चुका था। बरामदे में लगी ग्रिल वाली गेट के पायदान पर खड़ा हो कर वो देखता रहा दूर जाते हुए अपने माँ-पिता को। आँखों में उसकी आँसू नहीं थे। शायद सूख चुके थे पिछले कुछ दिनों में। शायद रो-रो कर चुप हो गया था, क्योंकि उसकी रुलाई का किसी पे असर नहीं होना था, न हुआ।

वो पहली बार था जब वो हारा था। अपनों से ही। नानी को अपने नाती को रखना था, वो जीत गयी। माँ ने अपना बेटी होने का फर्ज़ निभा दिया, वो जीत गयी। पिता जी शायद इसीलिए जीत गए थे, उनके बेटे को एक अच्छी परवरिश मिलने वाली थी। हारा तो शायद बस वो था। एक अच्छी परवरिश तो मिलने वाली थी, मगर शायद उसका बचपन खो जाने वाला था, हमेशा के लिए। उसके अंदर लड़ने का जज़्बा मरने वाला था हमेशा के लिए। और वो ज़ज़्बा धीरे धीरे मरता गया जैसे जैसे दिन, हफ़्ते, महीने, साल गुज़रे। वक़्त गुज़रता गया, वो तिल-तिल कर के हारता गया। इतना हार गया, कि जीतने की हर तमन्ना ही मरती गई। कभी घर में, कभी स्कूल में, कभी दोस्तों से, कभी दुश्मनों से, कभी अपनों से, कभी परायों से, सबसे हारता गया।

उसे पता था शायद क्या होगा लड़ के अपने हक़ के लिए, क्योंकि उसका कोई हक़ कभी था ही नहीं, कि वो ख़ुश हो, वो जीते, वो भी कुछ पा सके। इसीलिए वो टूट गया काँच के बिखरे हुए टुकड़ों की तरह। कोशिश तो की उसने उन्हें समेटने की, जोड़ने की, पर टूटे हुए टुकड़े कभी जुड़ते हैं भला? नहीं, बस कुछ पल के लिए एक साथ आ जाते हैं, और एक भ्रम हो जाता है कि शायद वो काँच पहले जैसा हो गया है, जुड़ गया है। और फिर, पल में चकनाचूर हो जाता है। सब कुछ। फिर से। हर बार। बार-बार।

यही उसकी नियति है। टूटना। टूट कर बिखर जाना। और उन टूटे हुए टुकड़ों से सबको ज़ख्म देना। क्योंकि काँच की तो यही किस्मत होती है। और ये सिलसिला चलता रहता है, अनवरत। जब तक या तो वक़्त ख़त्म हो जाए, या वो ख़ुद।
वो छः साल का बच्चा


~ गद्य

 उस समय वो छः साल का ही तो था। कौन सुनता उसकी? किसको सुनाता वो? फैसला तो हो चुका था। बरामदे में लगी ग्रिल वाली गेट के पायदान पर खड़ा हो कर वो देखता रहा दूर जाते हुए अपने माँ-पिता को। आँखों में उसकी आँसू नहीं थे। शायद सूख चुके थे पिछले कुछ दिनों में। शायद रो-रो कर चुप हो गया था, क्योंकि उसकी रुलाई का किसी पे असर नहीं होना था, न हुआ।

वो पहली बार था जब वो हारा था। अपनों से ही। नानी को अपने नाती को रखना था, वो जीत गयी। माँ ने अपना बेटी होने का फर्ज़ निभा दिया, वो जीत गयी। पिता जी शायद इसीलिए जीत गए थे, उनके बेटे को एक अच्छी परवरिश मिलने वाली थी। हारा तो शायद बस वो था। एक अच्छी परवरिश तो मिलने वाली थी, मगर शायद उसका बचपन खो जाने वाला था, हमेशा के लिए। उसके अंदर लड़ने का जज़्बा मरने वाला था हमेशा के लिए। और वो ज़ज़्बा धीरे धीरे मरता गया जैसे जैसे दिन, हफ़्ते, महीने, साल गुज़रे। वक़्त गुज़रता गया, वो तिल-तिल कर के हारता गया। इतना हार गया, कि जीतने की हर तमन्ना ही मरती गई। कभी घर में, कभी स्कूल में, कभी दोस्तों से, कभी दुश्मनों से, कभी अपनों से, कभी परायों से, सबसे हारता गया।

उसे पता था शायद क्या होगा लड़ के अपने हक़ के लिए, क्योंकि उसका कोई हक़ कभी था ही नहीं, कि वो ख़ुश हो, वो जीते, वो भी कुछ पा सके। इसीलिए वो टूट गया काँच के बिखरे हुए टुकड़ों की तरह। कोशिश तो की उसने उन्हें समेटने की, जोड़ने की, पर टूटे हुए टुकड़े कभी जुड़ते हैं भला? नहीं, बस कुछ पल के लिए एक साथ आ जाते हैं, और एक भ्रम हो जाता है कि शायद वो काँच पहले जैसा हो गया है, जुड़ गया है। और फिर, पल में चकनाचूर हो जाता है। सब कुछ। फिर से। हर बार। बार-बार।

यही उसकी नियति है। टूटना। टूट कर बिखर जाना। और उन टूटे हुए टुकड़ों से सबको ज़ख्म देना। क्योंकि काँच की तो यही किस्मत होती है। और ये सिलसिला चलता रहता है, अनवरत। जब तक या तो वक़्त ख़त्म हो जाए, या वो ख़ुद।

उस समय वो छः साल का ही तो था। कौन सुनता उसकी? किसको सुनाता वो? फैसला तो हो चुका था। बरामदे में लगी ग्रिल वाली गेट के पायदान पर खड़ा हो कर वो देखता रहा दूर जाते हुए अपने माँ-पिता को। आँखों में उसकी आँसू नहीं थे। शायद सूख चुके थे पिछले कुछ दिनों में। शायद रो-रो कर चुप हो गया था, क्योंकि उसकी रुलाई का किसी पे असर नहीं होना था, न हुआ। वो पहली बार था जब वो हारा था। अपनों से ही। नानी को अपने नाती को रखना था, वो जीत गयी। माँ ने अपना बेटी होने का फर्ज़ निभा दिया, वो जीत गयी। पिता जी शायद इसीलिए जीत गए थे, उनके बेटे को एक अच्छी परवरिश मिलने वाली थी। हारा तो शायद बस वो था। एक अच्छी परवरिश तो मिलने वाली थी, मगर शायद उसका बचपन खो जाने वाला था, हमेशा के लिए। उसके अंदर लड़ने का जज़्बा मरने वाला था हमेशा के लिए। और वो ज़ज़्बा धीरे धीरे मरता गया जैसे जैसे दिन, हफ़्ते, महीने, साल गुज़रे। वक़्त गुज़रता गया, वो तिल-तिल कर के हारता गया। इतना हार गया, कि जीतने की हर तमन्ना ही मरती गई। कभी घर में, कभी स्कूल में, कभी दोस्तों से, कभी दुश्मनों से, कभी अपनों से, कभी परायों से, सबसे हारता गया। उसे पता था शायद क्या होगा लड़ के अपने हक़ के लिए, क्योंकि उसका कोई हक़ कभी था ही नहीं, कि वो ख़ुश हो, वो जीते, वो भी कुछ पा सके। इसीलिए वो टूट गया काँच के बिखरे हुए टुकड़ों की तरह। कोशिश तो की उसने उन्हें समेटने की, जोड़ने की, पर टूटे हुए टुकड़े कभी जुड़ते हैं भला? नहीं, बस कुछ पल के लिए एक साथ आ जाते हैं, और एक भ्रम हो जाता है कि शायद वो काँच पहले जैसा हो गया है, जुड़ गया है। और फिर, पल में चकनाचूर हो जाता है। सब कुछ। फिर से। हर बार। बार-बार। यही उसकी नियति है। टूटना। टूट कर बिखर जाना। और उन टूटे हुए टुकड़ों से सबको ज़ख्म देना। क्योंकि काँच की तो यही किस्मत होती है। और ये सिलसिला चलता रहता है, अनवरत। जब तक या तो वक़्त ख़त्म हो जाए, या वो ख़ुद। #yqbaba #ज़िन्दगी #yqdidi #इकराश़नामा #गद्य #गद्य_ए_इकराश़