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श्रद्धांजलि खट्,खट्,खट्--अचानक आँखें खुली और सुना

श्रद्धांजलि 
खट्,खट्,खट्--अचानक आँखें खुली और सुनाई दिया, माँ जी दरवाजा खोलिए,काम वाली बाई थी।अनमने ढ़ंग से उठने की कोशिश की तो महसूस हुआ कि मेरी आँखें नम है और तकिया गीली।दरवाजा खोल कर मैं फिर आकर  लेट गई और सोचा कि सुप्त अवस्था में क्यों रो रही थी? 
आह! एक सिसकी निकली माँ!
बन्द पलकों में माँ की यादें कैद थी जो आँखों को नम कर रही थी।
निंद्रा जगत में मैं माँ से बातें कर रही थी।उनसे लौट आने का आग्रह, उनकी गोद में सर रख कर सोने की माँग, उनके गले लग रोने की इच्छा, अपने सिर पर उनके हाथ रखवा कर आशीर्वाद लेने की कामना कर रही थी।साथ ही साथ उन्हें अपने पोते-पोती, नाती-नातिन की शादी देखने और उनके बच्चों को गोद में खेलाने की बातें कर रही थी, लेकिन पता नहीं माँ इतनी कठोर कैसे हो गई।मैं जितना उन्हें पकड़ने की कोशिश करती वो उतनी ही दूर होती जातीं ,और तब मैंने दौड़ कर पकड़ने की चेष्टा की,लेकिन पता नहीं अचानक वो कहाँ गयब हो गई। दूर-दूर तक माँ दिखाई  नहीं दे रही थी ,फिर तो मेरी आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बहने लगी थी।शायद इसी लिए तकिया गीली थी।
पार्ट-1

©shashikala mahato
  #श्रद्धांजलि