बनते - बनते बिगड़ गई हैं मन की अनगिनत भावनाएं, दिल में है उम्मीद यही बस जल्द नया कुछ कर पाएं। आशा रुपी स्तंभों पर ना जाने कितने उदगार खड़े हैं, बस डर है कि ये कहीं वापस न गिर जाएं। वैसे तो हमने भी इसकी मजबूती में, कोई कसर नहीं छोड़ी है, परंतु तूफानों का क्या , उनका डर तो लगा रहता है, कि कही वर्षों की मेहनत खराब न कर जाएं। ©Unnati Upadhyay # बनते - बनते बिगड़ गई है।