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: स्त्री होने से कोई एतराज नही हैं मुझे तेरे सिर्फ़

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स्त्री होने से कोई एतराज नही हैं मुझे तेरे सिर्फ़ औरत रह जाने का डर है। 
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बंदिशें समझती हो न तुम जिसे तेरे स्वरूप को ढालने का यंत्र है बस 
धुरी हो तुम भविष्य की सृष्टा है बर्तमान की ।
:
तुझसे ही तो संस्कार है ममता है
तुम माया हो जींवन की सामर्थ्य हो
अग्नि परीक्षा तप है तेरे खरे होने का
तेरे भाग से ही तो बनने है सृष्टि के गहने ।
:
करुणा सौम्यता नवीनता सरलता 
गुण है तेरे सौंदर्य का प्रतिमान हो तुम
पोषित मत करो अहंकार को 
पश्चिम की हवा में मत बहने दो आप को अधिकारों के नाम पे 
तुम स्वयं अधिकार हो ।
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 समय के साथ नर-नारी के देह में तो कोई परिवर्तन नहीं आया, किन्तु चिन्तन और जीवन शैली में बहुत परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन किस सीमा तक हितकर है तथा कहां जाकर विष उगलने लगता है, किसी को इसका आकलन करने का समय नहीं मिलता। सबसे बड़ी बात तो यह है कि स्त्री अपने भोग्या रूप को भी नहीं समझा पा रही और भोक्ता रूप में सफल भी नहीं हो पा रही। स्त्री (देह में) पुरुष के साथ स्वतंत्रता एवं समानाधिकार के साथ-जीने को उत्सुक है। उसे शायद स्वतंत्रता के अर्थ भी नहीं मालूम। क्या चन्द्रमा सूर्य से स्वतंत्र हो सकता है या पृथ्वी बिना वर्षा के औषधि और वनस्पति पैदा कर सकती है? इनको तो संवत्सर के तंत्र को शिरोधार्य करना ही पड़ेगा।
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पश्चिम के प्रभाव में दाम्पत्य सम्बन्धों की हमारी यह आध्यात्मिक पृष्ठभूमि धुंधली पड़ती जा रही है। भौगोलिक दृष्टि से पूर्वी प्रदेश अग्नि प्रधान तथा पश्चिमी देश सोमप्रधान क्षेत्र है। वहां के नर-नारी शरीर पर प्रकृति के प्रभाव एक समान नहीं हो सकते। एक-दूसरे की नकल के परिणाम या दुष्परिणाम भी सामने आते जा रहे हैं। विवाह-विच्छेद की बढ़ती घटनाएं, ‘लिव-इन-रिलेशन’ द्ग जैसी अवधारणाएं तथा समलैंगिकता जैसी मानसिक विकृतियां प्रकृति विरुद्ध आचरण ही तो है। इनको कानूनी मान्यता देना मानवता को पाशविक स्वच्छन्दता की ओर धकेलना ही है। परम्परागत विवाह संस्था तो आज मानो ‘आउट-डेटेड्’ हो गई। जबकि इस संस्था का वैज्ञानिक आधार सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। मनुष्य जब पशु योनि से विकास की ओर बढ़ता है, तब विवाह का स्वरूप कुछ प्राकृतिक नियमों की वैज्ञानिकता को स्वीकारता है। ऐसी किसी समाज व्यवस्था पर नहीं ठहरता जिसे हम जब चाहें बदल डालें।
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#komal sharma #shweta mishra
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स्त्री होने से कोई एतराज नही हैं मुझे तेरे सिर्फ़ औरत रह जाने का डर है। 
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बंदिशें समझती हो न तुम जिसे तेरे स्वरूप को ढालने का यंत्र है बस 
धुरी हो तुम भविष्य की सृष्टा है बर्तमान की ।
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तुझसे ही तो संस्कार है ममता है
तुम माया हो जींवन की सामर्थ्य हो
अग्नि परीक्षा तप है तेरे खरे होने का
तेरे भाग से ही तो बनने है सृष्टि के गहने ।
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करुणा सौम्यता नवीनता सरलता 
गुण है तेरे सौंदर्य का प्रतिमान हो तुम
पोषित मत करो अहंकार को 
पश्चिम की हवा में मत बहने दो आप को अधिकारों के नाम पे 
तुम स्वयं अधिकार हो ।
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 समय के साथ नर-नारी के देह में तो कोई परिवर्तन नहीं आया, किन्तु चिन्तन और जीवन शैली में बहुत परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन किस सीमा तक हितकर है तथा कहां जाकर विष उगलने लगता है, किसी को इसका आकलन करने का समय नहीं मिलता। सबसे बड़ी बात तो यह है कि स्त्री अपने भोग्या रूप को भी नहीं समझा पा रही और भोक्ता रूप में सफल भी नहीं हो पा रही। स्त्री (देह में) पुरुष के साथ स्वतंत्रता एवं समानाधिकार के साथ-जीने को उत्सुक है। उसे शायद स्वतंत्रता के अर्थ भी नहीं मालूम। क्या चन्द्रमा सूर्य से स्वतंत्र हो सकता है या पृथ्वी बिना वर्षा के औषधि और वनस्पति पैदा कर सकती है? इनको तो संवत्सर के तंत्र को शिरोधार्य करना ही पड़ेगा।
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पश्चिम के प्रभाव में दाम्पत्य सम्बन्धों की हमारी यह आध्यात्मिक पृष्ठभूमि धुंधली पड़ती जा रही है। भौगोलिक दृष्टि से पूर्वी प्रदेश अग्नि प्रधान तथा पश्चिमी देश सोमप्रधान क्षेत्र है। वहां के नर-नारी शरीर पर प्रकृति के प्रभाव एक समान नहीं हो सकते। एक-दूसरे की नकल के परिणाम या दुष्परिणाम भी सामने आते जा रहे हैं। विवाह-विच्छेद की बढ़ती घटनाएं, ‘लिव-इन-रिलेशन’ द्ग जैसी अवधारणाएं तथा समलैंगिकता जैसी मानसिक विकृतियां प्रकृति विरुद्ध आचरण ही तो है। इनको कानूनी मान्यता देना मानवता को पाशविक स्वच्छन्दता की ओर धकेलना ही है। परम्परागत विवाह संस्था तो आज मानो ‘आउट-डेटेड्’ हो गई। जबकि इस संस्था का वैज्ञानिक आधार सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। मनुष्य जब पशु योनि से विकास की ओर बढ़ता है, तब विवाह का स्वरूप कुछ प्राकृतिक नियमों की वैज्ञानिकता को स्वीकारता है। ऐसी किसी समाज व्यवस्था पर नहीं ठहरता जिसे हम जब चाहें बदल डालें।
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#komal sharma #shweta mishra