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रफ्ता - रफ्ता हर सफऱ गुजर गया कुछ अधूरा कुछ पूरा न

रफ्ता - रफ्ता हर सफऱ गुजर गया
कुछ अधूरा कुछ पूरा निकल गया

दरख्वास्त की मैंने जिस-2 से कल
कोई अपना, कोई पराया बन गया

वक़्त ने ऐसे दर्शन सबके करा दिए
जो कल था, वो आज सरक गया

मासूमियत अपनी रोक लेती हर बार
दिल में मुश्किल ये सवाल पनप गया

जताने को उफ़ान भरा है जो मन में
कारण उनके वो घर द्वार निकल गया

फैसलों में मजबूत जो हर बार हम दिखे 
गुजरा वक़्त, फ़िर किस्सा ही बदल गया

वो दिन, वो बातें मुझे सभी की याद है 
दिल जाने, क्यों ये हर बार पिघल गया

कोई पूछे तो आकर बता दे फ़िर "अक्षि"
कैसे लिखा, कैसे फ़िर सब सिमट गया

"रफ्ता - रफ्ता हर सफऱ गुजर गया"

©WRITER AKSHITA JANGID
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