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आज हम आपको जीवन कर्म के क्षेत्र में बताने जा रहे ह

आज हम आपको जीवन कर्म के क्षेत्र में बताने जा रहे हैं भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को निराशा से उभारने के लिए उनकी शंकाओं का प्रभाव समाधान किया इसी के अंतर्गत उन्होंने जीव के कर्म क्षेत्र शरीर का निर्माण किन किन तत्वों से होता है इसके बारे में बताया है उनके अनुसार जल अग्नि वायु आकाश पृथ्वी सत रज तम अहंकार बुद्धि इच्छा द्वेष सुख-दुख और धैर्य इत्यादि के द्वारा शरीर रूपी कर्म क्षेत्र का निर्माण होता है इसी प्रकार तैयार शरीर में जीव के साथ-साथ ईश्वर के अंश के रूप में आत्मा भी निवास करती है जीव अपने विवेक के अनुसार कर्म करने के लिए स्वतंत्र होता है और हमारा आत्म साक्षी बनता है मनुष्य योनि को सबसे उत्तम इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें विवेक नियंत्रण कर सकता है हालांकि इसके पहले अपने अंदर विद्यमान ईश्वरीय तत्व आत्मा के दर्शन करने होते हैं अपनी आत्मा के दर्शन को ही आत्म साक्षर कहा जाता है परंतु आत्म साक्षात्कार की आवश्यकता में जाने के लिए उसे पहले कई क्षेत्र में विद्यमान तत्व को दुष्ट दुष्ट प्रभावित को दूर करने के लिए विनम्रता अहिंसा सरलता स्थिरता आत्म संयम इंद्रियां विषय का परित्याग और ईश्वर की भक्ति जैसे गुणों को धारण करना अनिवार्य होता है फिर वही समय स्थिति में आकर अपने अंदर विद्यमान ईश्वर तत्व को आत्म साक्षात्कार के रूप में अनुभव करने लगता है ऐसी स्थिति में वह अपने कर्म फल को ईश्वर की समर्पित करते हुए परम आनंद की अनुभूति करता है ऐसी स्थिति में प्रवेश करने के लिए मनुष्य कोई योग और ध्यान के रास्ते पर चलना होता है आत्म साक्षात्कार के पश्चात आत्मा अपनी जीवन यात्रा को समाप्त कर कर शांति पूर्वक परमब्रह्मा में विलीन होकर जीवन के अंतिम इसलिए मनुष्य योनि को पाकर भी यदि कोई व्यक्ति जीवन के अंतिम लक्ष्य को नहीं पाता तो वह एक बहुमूल्य अवसर को खो देता

©Ek villain #Givan 

#GaneshChaturthi
आज हम आपको जीवन कर्म के क्षेत्र में बताने जा रहे हैं भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को निराशा से उभारने के लिए उनकी शंकाओं का प्रभाव समाधान किया इसी के अंतर्गत उन्होंने जीव के कर्म क्षेत्र शरीर का निर्माण किन किन तत्वों से होता है इसके बारे में बताया है उनके अनुसार जल अग्नि वायु आकाश पृथ्वी सत रज तम अहंकार बुद्धि इच्छा द्वेष सुख-दुख और धैर्य इत्यादि के द्वारा शरीर रूपी कर्म क्षेत्र का निर्माण होता है इसी प्रकार तैयार शरीर में जीव के साथ-साथ ईश्वर के अंश के रूप में आत्मा भी निवास करती है जीव अपने विवेक के अनुसार कर्म करने के लिए स्वतंत्र होता है और हमारा आत्म साक्षी बनता है मनुष्य योनि को सबसे उत्तम इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें विवेक नियंत्रण कर सकता है हालांकि इसके पहले अपने अंदर विद्यमान ईश्वरीय तत्व आत्मा के दर्शन करने होते हैं अपनी आत्मा के दर्शन को ही आत्म साक्षर कहा जाता है परंतु आत्म साक्षात्कार की आवश्यकता में जाने के लिए उसे पहले कई क्षेत्र में विद्यमान तत्व को दुष्ट दुष्ट प्रभावित को दूर करने के लिए विनम्रता अहिंसा सरलता स्थिरता आत्म संयम इंद्रियां विषय का परित्याग और ईश्वर की भक्ति जैसे गुणों को धारण करना अनिवार्य होता है फिर वही समय स्थिति में आकर अपने अंदर विद्यमान ईश्वर तत्व को आत्म साक्षात्कार के रूप में अनुभव करने लगता है ऐसी स्थिति में वह अपने कर्म फल को ईश्वर की समर्पित करते हुए परम आनंद की अनुभूति करता है ऐसी स्थिति में प्रवेश करने के लिए मनुष्य कोई योग और ध्यान के रास्ते पर चलना होता है आत्म साक्षात्कार के पश्चात आत्मा अपनी जीवन यात्रा को समाप्त कर कर शांति पूर्वक परमब्रह्मा में विलीन होकर जीवन के अंतिम इसलिए मनुष्य योनि को पाकर भी यदि कोई व्यक्ति जीवन के अंतिम लक्ष्य को नहीं पाता तो वह एक बहुमूल्य अवसर को खो देता

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