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============================ महा युद्ध होने

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महा   युद्ध   होने   से पहले  कतिपय नियम  बने पड़े थे,
हरि   भीष्म   ने  खिंची   रेखा उसमें योद्धा  युद्ध लड़े थे।
एक योद्धा  योद्धा से लड़ता हो प्रतिपक्ष पे गर अड़ता हो,
हस्तक्षेप वर्जित था बेशक निजपक्ष का योद्धा मरता हो।
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पर स्वार्थ सिद्धि की बात चले स्व प्रज्ञा चित्त बाहिर था,
निरपराध का वध करने में पार्थ निपुण जग जाहिर था।
सव्यसाची का शिष्य सात्यकि एक योद्धा से लड़ता था,
भूरिश्रवा  प्रतिपक्ष    प्रहर्ता   उसपे   हावी   पड़ता  था। 
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भूरिश्रवा यौधेय विकट  था  पार्थ शिष्य शीर्ष हरने को,
दुर्भाग्य प्रतीति परिलक्षित थी पार्थ शिष्य था मरने को।
बिना  चेताए  उस योधक  पर  अर्जुन  ने  प्रहार किया,
युद्ध में  नियमचार  बचे जो  उनका  सर्व संहार किया।
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रण के नियमों  का उल्लंघन  कर अर्जुन  ने प्राण लिया ,
हाथ काटकर  उद्भट  का कैसा अनुचित दुष्काम किया।
अर्जुन से दुष्कर्म  फलाकर  उभयहस्त से हस्त गवांकर,
बैठ गया था भू पर रण में एक हस्त योद्धा  पछताकर।
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पछताता था  नियमों  का  नाहक   उसने सम्मान किया ,
पछतावा कुछ और बढ़ा जब सात्यकि ने दुष्काम किया।
जो  कुछ  बचा  हुआ  अर्जुन  से  वो दुष्कर्म  रचाया था,    
शस्त्रहीन हस्तहीन योद्धा  के  सर  तलवार चलाया  था ।   
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कटा  सिर  शूर  का  भू पर विस्मय  में था वो पड़ा हुआ,
ये   कैसा  दुष्कर्म फला था  धर्म  पतित हो  गड़ा  हुआ?
शिष्य मोह में गर अर्जुन का रचा कर्म  ना कलुसित था,  
पुत्र मोह  में  धृतराष्ट्र  का अंधापन   कब  अनुचित था?
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अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित

©Ajay Amitabh Suman इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् चौदहवें भाग में दिखाया गया कि प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होकर अर्जुन द्वारा  जयद्रथ का वध इस तरह से किया गया कि उसका सर धड़ से अलग होकर उसके तपस्वी पिता की गोद में गिरा और उसके तपस्या में लीन पिता का सर टुकड़ों में विभक्त हो गया कविता के वर्तमान प्रकरण  अर्थात् पन्द्रहवें भाग में देखिए महाभारत युद्ध नियमानुसार अगर दो योद्धा आपस में लड़ रहे हो तो कोई तीसरा योद्धा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। जब अर्जुन के शिष्य सात्यकि और भूरिश्रवा के बीच युद्ध चल रहा था और युद्ध मे
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महा   युद्ध   होने   से पहले  कतिपय नियम  बने पड़े थे,
हरि   भीष्म   ने  खिंची   रेखा उसमें योद्धा  युद्ध लड़े थे।
एक योद्धा  योद्धा से लड़ता हो प्रतिपक्ष पे गर अड़ता हो,
हस्तक्षेप वर्जित था बेशक निजपक्ष का योद्धा मरता हो।
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पर स्वार्थ सिद्धि की बात चले स्व प्रज्ञा चित्त बाहिर था,
निरपराध का वध करने में पार्थ निपुण जग जाहिर था।
सव्यसाची का शिष्य सात्यकि एक योद्धा से लड़ता था,
भूरिश्रवा  प्रतिपक्ष    प्रहर्ता   उसपे   हावी   पड़ता  था। 
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भूरिश्रवा यौधेय विकट  था  पार्थ शिष्य शीर्ष हरने को,
दुर्भाग्य प्रतीति परिलक्षित थी पार्थ शिष्य था मरने को।
बिना  चेताए  उस योधक  पर  अर्जुन  ने  प्रहार किया,
युद्ध में  नियमचार  बचे जो  उनका  सर्व संहार किया।
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रण के नियमों  का उल्लंघन  कर अर्जुन  ने प्राण लिया ,
हाथ काटकर  उद्भट  का कैसा अनुचित दुष्काम किया।
अर्जुन से दुष्कर्म  फलाकर  उभयहस्त से हस्त गवांकर,
बैठ गया था भू पर रण में एक हस्त योद्धा  पछताकर।
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पछताता था  नियमों  का  नाहक   उसने सम्मान किया ,
पछतावा कुछ और बढ़ा जब सात्यकि ने दुष्काम किया।
जो  कुछ  बचा  हुआ  अर्जुन  से  वो दुष्कर्म  रचाया था,    
शस्त्रहीन हस्तहीन योद्धा  के  सर  तलवार चलाया  था ।   
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कटा  सिर  शूर  का  भू पर विस्मय  में था वो पड़ा हुआ,
ये   कैसा  दुष्कर्म फला था  धर्म  पतित हो  गड़ा  हुआ?
शिष्य मोह में गर अर्जुन का रचा कर्म  ना कलुसित था,  
पुत्र मोह  में  धृतराष्ट्र  का अंधापन   कब  अनुचित था?
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अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित

©Ajay Amitabh Suman इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् चौदहवें भाग में दिखाया गया कि प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होकर अर्जुन द्वारा  जयद्रथ का वध इस तरह से किया गया कि उसका सर धड़ से अलग होकर उसके तपस्वी पिता की गोद में गिरा और उसके तपस्या में लीन पिता का सर टुकड़ों में विभक्त हो गया कविता के वर्तमान प्रकरण  अर्थात् पन्द्रहवें भाग में देखिए महाभारत युद्ध नियमानुसार अगर दो योद्धा आपस में लड़ रहे हो तो कोई तीसरा योद्धा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। जब अर्जुन के शिष्य सात्यकि और भूरिश्रवा के बीच युद्ध चल रहा था और युद्ध मे