पल्लव की डायरी शाखों में पतझर बे मौसम होने लगे है प्यार के तराने,बोझिल होने लगे है छाव प्रीत की बची कहाँ है रिश्तो की आग थानो में पहुँचने लगी है अटूट परिवारो की टूटन और द्वन्दों से संस्कारो की फुलवारी झुलसने लगी है स्वार्थो और लालचों की चलती आँधी मै मूल कर्तव्यों की होली जलने लगी है कोमल मन,सुंदर भावनाओ की धारणाये भौतिकता की चकाचौध में,कुंठित मिली है लगता है मानव मन की संवेदनाये संसाधनों में मरी पड़ी है प्रवीण जैन पल्लव ©Praveen Jain "पल्लव" #Rose मानव मन की संवेदनाये,संसाधनों में मरी पड़ी है #Rose