सुबह के सात बजे मिस्टर लोकेश पार्क में टहल रहे थे। हल्का-हल्का उजाला हो रहा था। पिछले आधे घंटे से वो इधर से उधर चहलकदमी कर रहे थे इसलिए उनके घुटनों में दर्द होना शुरू हो गया था। वो धीरे धीरे चलते हुए आए और पार्क में पड़ी हुई बैंच पर बैठ गए। सुबह की ताजी हवा में कुछ ठंडक होती है तो इंसान के दिमाग में चल रही उथल-पुथल भी हवा के साथ बह जाती है।
शायद मिस्टर लोकेश के दिमाग में भी उन्हें परेशान करने वाले कुछ विचार शांत हुए थे कि उन्हें हल्की सी झपकी लग गई। लगभग पांच मिनट बाद जब लोकेश के दोस्त महेंद्र जी ने उन्हें आवाज दी तो वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। महेंद्र भी उनके पास आकर बैठ गए।
“तू आज फिर सुबह पांच बजे से इस वीरान पार्क में घूम रहा था ना?” महेंद्र की आवाज में सवाल से ज्यादा गुस्सा झलक रहा था।
“तू तो जानता है यार, सलिला के जाने के बाद वो घर मुझे काटने को दौड़ता है। फिर उस अकेले घर में क्या बैठ कर दीवारों से बात करूं?” लोकेश ने शांत होकर जवाब दिया।