ग़ज़ल मोहब्बत का सफ़र हमसे मुकम्मल ना हुआ , हिज्र में सिवाय ग़म के कुछ मयस्सर ना हुआ | के अब सुख गया है दरिया - ए - चश्म भी मेरा , फ़िर कभी मैं तेरी याद में चश्म - ए - तर ना हुआ । वीरान ही पड़ा रहा ये दिल तेरे जाने के बाद फिर कभी किसी के लिए ये शहर ना हुआ । के ज़ेहन पुरज़ोर कोशिश में था तुझे भुलाने के लिए , फ़िर दिल ना माना तो ज़ेहन का कोई असर ना हुआ । यूँ तो तेरी वफ़ा पे कई ग़ज़लें लिख दी मैंने लेकिन तेरी बेवफ़ाई पर मुझसे एक अशआर ना हुआ । मेरे लफ़्ज़ों में तासीर हमेशा नीम की ही रही , फ़क़त लहजा तल्ख़ होने से मैं कभी ज़हर ना हुआ । #ghazal #poem #mohabbat #hijra