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नयना निहारें राह तेरी ,तू कहाँ है? राह तकते नयन नी

नयना निहारें राह तेरी ,तू कहाँ है?
राह तकते नयन नीरस हो चुके हैं ।
होठों ने तो कहना चाहा बहुत कुछ,
 वो बेचारे स्वयं सुध बुध खो चुके हैं ।।
बिछुङ कर मिलना कहाँ आसान होता,
मिलन की उम्मीद का पथ चुके हैं ।।
अब तो आदत बन गया रहना अकेला,
जितना विरह में रोना था हम रो चके हैं ।।
पेट ने उपवास रखा ,अब तो आजा,
शायद मेरे श्वास पूरे हो चुके हैं ।।
पुष्पेन्द्र "पंकज"

©Pushpendra Pankaj
  विरह वेदना

विरह वेदना #कविता

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