अगर सांसों का चलना ही जिए जाना है तो मैं जिए जाने की रस्म बख़ूबी अदा कर रहा हूँ! मेरे लिए सुकूँ के सारे दरवाज़े बंद क्यो है? न जाने क्यों ईश्वर सुनता ही नही है मेरी, लगता है वो भी अवकाश पर है! कई वट वृक्ष गिरकर धराशाई होते जा रहे है, हर आशा की कोपलें उग आने से पहले ही टूट जाती है। घर,सफ़र,लोग,मक़सद छूटते जा रहे है। कितने लोगों से मैं बताना चाहता हूँ कि उनकी क्या अहमियत है ज़िंदगी में, कितनों से कहना है चल छोड़ न यार आख़िरी बार माफ़ कर दे! सोचता हूँ, काश! एक दिन सब ठीक हो जाए लेकिन जो न हुआ तो जैसे अब्दाली और नादिरशाह के हमलों के बाद उजड़ी हुई दिल्ली वैसे स्थिति होगी, वीभत्स और दारुण! आख़िरी बार माफ़ कर दो (कविता) अगर सांसों का चलना ही जिए जाना है तो मैं जिए जाने की रस्म बख़ूबी अदा कर रहा हूँ! मेरे लिए सुकूँ के सारे दरवाज़े बंद क्यो है? न जाने क्यों ईश्वर सुनता ही नही है मेरी, लगता है वो भी अवकाश पर है! कई वट वृक्ष गिरकर धराशाई होते जा रहे है,