मिटटी की पतवार अभी भीगी नही भीगी नहीं है, अग्नि हरबार मीठे नीम की मीठा है कागज ,कवि कुम्हार का, जिसकी सूरत अभी ढली नहीं, बनी नहीं, सागर की बूंद में बूंद आंखों की, जो फीकी है सफेद रंग में रंगरूप जो दिखा नहीं, रूप में, पानी के सीसे में सीसा वक्त का, जो दुंदला है बुराई के इस कोहरे में कोहरा जो छट् जाए, तो आशा के उबाल परमात्मा में परमात्मा जो दिये के लो, जो समाई है सीप के मोती में मोती मोम का है, जो पिघल ना जाए हाथ से हाथ भरोसे का ,जो रखा है मां के आंचल से बचपन से बचपन नए जमाने का, जो गुमसुम है लंबे वक्त से बक्त सुकून का, जो मिल जाए तो एक पल से एक पल, जो मिला नहीं घड़ी की सुइयों में सुई, जिसकी नोक को हमने समझा नहीं समझा नहीं, कड़ मिटटी का है मिटटी जो पानी सी है पानी, जो समान है निर्मल मन के मन, जो सार है परमात्मा का परमात्मा, जो मां है चेतना की चेतना ,जो पानी की बूंद है बूंद ,जो बीगी हैं प्यार में हमसाथ हमेशा ©prahlad singh मिटटी की बूंद #still