-भविष्य का सिकंदर- राह बदलकर झूठे चकाचौंध से चल दिया हूँ अंधेरे की ओर । भाता नही अब सागर का अनुप्रवाह रुख किया हूँ जिधर है प्रतिप्रवाह । अब तो फबने लगा है एकांतवास जैसे राम को भाया था वनवास । माना नरम हुई है जिंदगी की तासीर पर बदला नही हूँ अमिट ताबीर । पथ है अमर कंटक की पहाड़ी जैसा बीच राह में हौसला से समझौता कैसा । रण में निकला हूँ लेकर कटारी भला भलीभाँति याद है किस-किस ने है छला । जरा वक्त को आने दो हमारे पाले में लूँगा हिसाब सबका समाज के उजाले में । अभी पल रहा है मेरा नादान सा मुकद्दर दरिया पार कर बनेगा भविष्य का सिकंदर । #सिकंदर