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तन्हाई में डूब गई हर सुबह शाम बोझिल होकर। रुसवाई र

तन्हाई में डूब गई हर सुबह शाम बोझिल होकर।
रुसवाई रिसती केवल आँखों से ओझल होकर।
राह ताकती रहती हूँ मैं दरवाज़े पर ख़डी खड़ी!
मिलने मुझसे आओगे यार कभी विह्वल होकर।

तेरे बग़ैर ओ साजन रे   साँसें भी साथ नहीं देतीं।
मन सूना सा रहता मेरा   बातें एहसास नहीं देतीं।
क़तरा क़तरा बंट जाती हूँ मैं विरहन की पीड़ा में!
रह जाती हूँ मैं केवल एक परछाई धूमिल होकर। तन्हाई में डूब गई हर सुबह शाम बोझिल होकर।
रुसवाई रिसती केवल आँखों से ओझल होकर।
राह ताकती रहती हूँ मैं दरवाज़े पर ख़डी खड़ी!
मिलने मुझसे आओगे यार कभी विह्वल होकर।

तेरे बग़ैर ओ साजन रे   साँसें भी साथ नहीं देतीं।
मन सूना सा रहता मेरा   बातें एहसास नहीं देतीं।
क़तरा क़तरा बंट जाती हूँ मैं विरहन की पीड़ा में!
तन्हाई में डूब गई हर सुबह शाम बोझिल होकर।
रुसवाई रिसती केवल आँखों से ओझल होकर।
राह ताकती रहती हूँ मैं दरवाज़े पर ख़डी खड़ी!
मिलने मुझसे आओगे यार कभी विह्वल होकर।

तेरे बग़ैर ओ साजन रे   साँसें भी साथ नहीं देतीं।
मन सूना सा रहता मेरा   बातें एहसास नहीं देतीं।
क़तरा क़तरा बंट जाती हूँ मैं विरहन की पीड़ा में!
रह जाती हूँ मैं केवल एक परछाई धूमिल होकर। तन्हाई में डूब गई हर सुबह शाम बोझिल होकर।
रुसवाई रिसती केवल आँखों से ओझल होकर।
राह ताकती रहती हूँ मैं दरवाज़े पर ख़डी खड़ी!
मिलने मुझसे आओगे यार कभी विह्वल होकर।

तेरे बग़ैर ओ साजन रे   साँसें भी साथ नहीं देतीं।
मन सूना सा रहता मेरा   बातें एहसास नहीं देतीं।
क़तरा क़तरा बंट जाती हूँ मैं विरहन की पीड़ा में!

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