वो रेत, और सूखे पत्ते रेत पर बनते बिगड़ते , कदमो के निशान , गवाह हैं गुजरते हैं रोज़ वहां से कुछ "इंसान" सभी साफ़ स्वच्छ वस्त्रों में लिपटे मलिन नहीं। "मलिन" तो बस "वो"एक ही घूमता है, हर रोज उन्ही वस्त्रों में वो "छोटू"… आगे की कविता कैप्शन में पढ़ें ©Divya Joshi वो रेत, और सूखे पत्ते रेत पर बनते बिगड़ते , कदमो के निशान , गवाह हैं गुजरते हैं रोज़ वहां से कुछ