White आरंभ कुछ भूले-बिखरे पन्ने, उड़ गए कहीं झरोखों से। यादे उनकी अमर-शेष, भूलूं कैसे उन्हें अब, इन ज़माने से ? अमिट है वो पल, कैसे छोड़ू उन्हें, किसी मुहाने में ? जिये थे वो लम्हे भी कभी हसीन, भला लड़ूं कैसे “बदलते वक्त” के फ़साने में ? वो सोच, अब जिंदगी ठहर रही; पर वक़्त ना ठहरा हमारे से। न भूलते लोग, न तेरे वायदें, आखिर, उम्मीद रखूं अब कैसे इन इरादों से ? यहां पन्ने बिखर गए हवाओं के बहाने से, नियति मेरी ऐसी, वो गए अपने फ़साने से, रक्त में चिंगारी अभी शेष- छोड़ इन पन्नो, लिख दो समर अपने जज्बातों से; नियति" नहीं इतनी अमर हमारी, गलतियां थी मेरी, अपनी भावनाओं से। तेरे रास्तों को देख ये फुर्सत बदल गया, वर्ना इतनी फुर्सत न थी मुझे इन जमाने से। सूरज अभी ढला नही, प्रभात शेष हैं, लिख दो अब नयी किताब, उन्ही बिखरे हुए यादों से। था मैं फौलाद, भूले जो न रही विश्राम अभी; हो रहा “आरम्भ” अब उस वेदना की टंकार से। ©Saurav life #hindi_poem_appreciation #sauravlife