ना उमंग ना तरंग, जिंदगी हुई पड़ी बेरंग, अपनों में ईर्ष्या दोस्तों में जलन, समझ नहीं आ रहा जीने का ढंग, सब कुछ है पास फिर भी हैं तंग कहने को अपने पर ना कोई संग, हर कोई खुद से लड़ रहा जंग जहरी है मन विचार है भुजंग, बस मोबाइल तक ही सिमटी पड़ी है जिंदगी, उलझनों के साए से लिपटी पड़ी है जिंदगी, किस कदर बटोरें इसे थक गए हैं अब पतझड़ के पत्तों सी बिखरी पड़ी है जिंदगी, पैसों से बाजार में मिलती नहीं खुशियां, बोए हैं गर कांटे तो खिलती नहीं खुशियां, गैरों के आंसू देख खुश हुए 4 दिन ज्यादा दिन साथ ऐसे चलती नहीं खुशियां, अपनों की खुशी से जलते हैं अपने हो मतलब तो साथ में चलते हैं अपने, गिरगिट भी हो जाए शर्मिंदा इन्हें देखकर काम निकलते ही रंग बदलते हैं अपने, खाली हाथ यहां से गया था सिकंदर होते थे महल जो आज है वो खंडहर, फिर भी ख्वाहिशें बनी है समंदर "ओमबीर काजल" तू भी झांक अपने अंदर।। ©Ombir Kajal जीने का ढंग #WorldAsteroidDay