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द्रोर्ण ने चली थी चाल अब फूटनीति की, पांडव से अर्ज

द्रोर्ण ने चली थी चाल अब फूटनीति की,
पांडव से अर्जुन अलग करने की कूटनीति थी,
धर्म के रक्षा-रथ पर सवार अर्जुन,
युद्ध भूमि में अब अपनों से दूर हो चला था,
कौरव के इस चाल को न समझ सके धर्मराज,
जो उनके समक्ष "चक्रव्यूह" खड़ा था,
अब युधिष्ठिर के चेहरे पर,
संशय की मां आंख खड़ी थी,
बार-बार दुर्योधन की ललकार,
उन्हें परास्त के दरवाजे पर,
ले जाने को अड़ी थी,
तभी एकाएक बोला,
सोलह बरस का सुकुमार सुभद्रा नंदन,
हे काका श्री कुछ मेरा भी स्वीकार कर लो अभि "वंदन",
गर्व से कहता हूं,
हूं मैं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु,
इस युद्ध भीड़ क्षेत्र में,
अर्जुन की कमी नहीं खलने दूंगा,
सौगंध है मुझे पिताश्री की,
अब अपने मस्तक में मां द्रोपदी पर हुए,
अत्याचारों को नहीं पलने दूंगा,
अब बहुत हो चुका,
आज्ञा दो हे काका श्री,
चक्रव्यूह को तोड़ कर जाऊं,
बढ़ जाऊं विजय पथ पर,
और दुशासन का मस्तक फोड़ के आऊं,
                   ‌‌        -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र की तेजशीलता
Part-1
द्रोर्ण ने चली थी चाल अब फूटनीति की,
पांडव से अर्जुन अलग करने की कूटनीति थी,
धर्म के रक्षा-रथ पर सवार अर्जुन,
युद्ध भूमि में अब अपनों से दूर हो चला था,
कौरव के इस चाल को न समझ सके धर्मराज,
जो उनके समक्ष "चक्रव्यूह" खड़ा था,
अब युधिष्ठिर के चेहरे पर,
संशय की मां आंख खड़ी थी,
बार-बार दुर्योधन की ललकार,
उन्हें परास्त के दरवाजे पर,
ले जाने को अड़ी थी,
तभी एकाएक बोला,
सोलह बरस का सुकुमार सुभद्रा नंदन,
हे काका श्री कुछ मेरा भी स्वीकार कर लो अभि "वंदन",
गर्व से कहता हूं,
हूं मैं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु,
इस युद्ध भीड़ क्षेत्र में,
अर्जुन की कमी नहीं खलने दूंगा,
सौगंध है मुझे पिताश्री की,
अब अपने मस्तक में मां द्रोपदी पर हुए,
अत्याचारों को नहीं पलने दूंगा,
अब बहुत हो चुका,
आज्ञा दो हे काका श्री,
चक्रव्यूह को तोड़ कर जाऊं,
बढ़ जाऊं विजय पथ पर,
और दुशासन का मस्तक फोड़ के आऊं,
                   ‌‌        -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र की तेजशीलता
Part-1