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मेरे बेअदब से ख़त (full in caption) मेरे बेअदब से ख़

मेरे बेअदब से ख़त
(full in caption) मेरे बेअदब से ख़त..
जिनमें नहीं होती नमस्कार प्रणाम जैसी शुरुआत, नहीं पूछा जाता हाल चाल सामने वाले का क्यूँकि मुझे लगता है कि अगर वो मुझे जानता है तो ख़ुद ही मेरा काँधा माँग लेगा। इसलिए मैं सीधे आ जाती हूँ काम की बातों पर...न कोई औपचारिकता की कशमकश, न किसी झूठी मीठी बातों का बंधन!
मेरे बेअदब से ख़त किसी सीमा में नहीं बंधते..बहते हैं पहाड़ों, पत्थरों की परवाह किये बिना बेपरवाह झरने से..
और न ही अंत मे लिखती हूँ सप्रेम, प्यार सहित, आपका अपना..बस अंत कर देती हूँ सिर्फ़ अपने नाम से।

पर खटक जाती है यही बेअदबी पढ़ने वाले को, फिर वो ख़त का मजमून नहीं समझना चाहता..वो नापना तौलना चाहता है मेरा अल्हड़पन, मेरी बेहूदगी..वो जानना चाहता है कि ख़त भेजने वाला क्यूँ नहीं करता चाशनी में लिपटी बातें? क्यूँ नहीं पूछता मेरा हाल, मैं भी तो पूछता हूँ हर ख़त में कि तुम कैसे हो?क्या तुम्हारा ब्याह तय हो गया, तुम इतना कमाते हो फिर भी किराए के मकान में क्यूँ हो? पर ये बेअदब ख़त नहीं जानना चाहता मेरे हाल ये क्यूँ नहीं फँसते सवालों के फ़ेर में..ये ख़त समाज की सोच से अलग क्यूँ हैं? और फिर वो फंस जाता है मुझे समझने के खेल में और भूल जाता ख़त में भेजा ज़रूरी काम!

मुझे अब लगता है कि सीखना होगा गुड़ में लपेटना शब्दों को..बदलना होगा ख़तों को आदाब, नमस्कार और दूसरों की ज़िंदगी में दिलचस्पी की परतों में..
मेरे बेअदब से ख़त
(full in caption) मेरे बेअदब से ख़त..
जिनमें नहीं होती नमस्कार प्रणाम जैसी शुरुआत, नहीं पूछा जाता हाल चाल सामने वाले का क्यूँकि मुझे लगता है कि अगर वो मुझे जानता है तो ख़ुद ही मेरा काँधा माँग लेगा। इसलिए मैं सीधे आ जाती हूँ काम की बातों पर...न कोई औपचारिकता की कशमकश, न किसी झूठी मीठी बातों का बंधन!
मेरे बेअदब से ख़त किसी सीमा में नहीं बंधते..बहते हैं पहाड़ों, पत्थरों की परवाह किये बिना बेपरवाह झरने से..
और न ही अंत मे लिखती हूँ सप्रेम, प्यार सहित, आपका अपना..बस अंत कर देती हूँ सिर्फ़ अपने नाम से।

पर खटक जाती है यही बेअदबी पढ़ने वाले को, फिर वो ख़त का मजमून नहीं समझना चाहता..वो नापना तौलना चाहता है मेरा अल्हड़पन, मेरी बेहूदगी..वो जानना चाहता है कि ख़त भेजने वाला क्यूँ नहीं करता चाशनी में लिपटी बातें? क्यूँ नहीं पूछता मेरा हाल, मैं भी तो पूछता हूँ हर ख़त में कि तुम कैसे हो?क्या तुम्हारा ब्याह तय हो गया, तुम इतना कमाते हो फिर भी किराए के मकान में क्यूँ हो? पर ये बेअदब ख़त नहीं जानना चाहता मेरे हाल ये क्यूँ नहीं फँसते सवालों के फ़ेर में..ये ख़त समाज की सोच से अलग क्यूँ हैं? और फिर वो फंस जाता है मुझे समझने के खेल में और भूल जाता ख़त में भेजा ज़रूरी काम!

मुझे अब लगता है कि सीखना होगा गुड़ में लपेटना शब्दों को..बदलना होगा ख़तों को आदाब, नमस्कार और दूसरों की ज़िंदगी में दिलचस्पी की परतों में..