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अब शहर भी सुनसान लगने लगा शाह.. तू भी मेहमान लगने

अब शहर भी सुनसान लगने लगा
शाह.. तू भी मेहमान लगने लगा
हिज़रत तो वाजिब थी सफर ए मंजिल के लिए
जिंदगी तू क्यू इतना परेशान लगने लगा
मुस्तक़बिल जो रौशन थी तुमसे
तुम गए तो आफताब लगने लगा


यादें जो नक्श थी जेहन में ...२
Sheikh अब वो..! अजाब लगने लगा

©Shahnawaz Atique
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