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प्रेम के ढाई आखर का अब चीर हरण हो रहा है स्वार्थवश

प्रेम के ढाई आखर का अब चीर हरण हो रहा है
स्वार्थवश ही तो वर-वधु का वरन हो रहा है

मेरा न तो किसी का न इसका चलन हो रहा है
स्वयंकर का नहीं पर कर्मो का कलन हो रहा है

पीडित है बुज़ुर्ग उनसे ये सब न सहन हो रहा है
पराई थाली का छीन स्वयं का भरण हो रहा है

©arti Saxena
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