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क्यों बसे पड़े हो फुटपाथ पर जाते क्यों नहीं अपने



क्यों बसे पड़े हो फुटपाथ पर
जाते क्यों नहीं अपने घर तुम,

खा रहे हो, यहीं नहा रहे हो..
कर रहे हो मैला मेरा शहर तुम।

भूखे-अधनंग बच्चे सर्दियों में,
तप रहे हो ज्येष्ठ की दोपहर तुम।

डरते नहीं चमकती बिजलियों से, 
भटकते हो बारिशों में दर-बदर तुम।

खाकर मेरे हिस्से की रोटी तुमने,
कोई कोना दिया नहीं अपने मकानों में,

हर रात कुचलते हो उम्मीदें हमारी
ये कैसा नशा करते हो मयखानों में।

शहर तुम्हारा है तो किधर जाएं हम,
हुबहू भेड़िए हैं बियाबानों में।

तुम्हारी आवाजें दबाई जाती होंगी,
हम तो शामिल हैं बेजुबानों में।

©Sarjeel Ahmad
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