रफ्ता रफ्ता बढ़ रही थी ज़िन्दगी हसीं मंज़िल पाने को लगी एक ठोकर ज़ोरों से टूट के बिखर जाने को कोई गम नहीं समेटुगा खुद को फिर से आशियाना बनाने को रफ्ता रफ्ता ज़िन्दगी... ©Mukesh kolasariya # शायरी #ज़िन्दगी #रफ्ता रफ्ता