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लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर, पर अपनी तो बिछड़ जा

लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर,
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी |
जीत मिली हम दोनो को बस, बस आँसू की कमाई थी | 
तुम पंछी थे और मैं थी मछली,
हम दोनो की अलग थी दुनिया,
अलग सुबह और अलग जहाँ |
सब कहते थे हम दोनों का,
इस दुनिया में मेल कहाँ,
पर भूल नहीं पाऊँगी वो लम्हा,
जब तुमने दिल की धड़कने सुनायी थी | 
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर, 
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी ।
ये बिछड़ना मिलना ये तो शायद मुहब्बत है,
अपने प्यार को वो दे देना,
जिसकी उसे ज़रूरत है, 
हम दोनो थे क़ैद कहीं,
अपनी समझ की सलाखों में,
तुमने ऐसा रिहा किया,
ख़ुद आज़ादी शर्मायी थी;
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर, 
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी | 
मिलेंगे हम ये वादा है ,
रोज़ रात को चाँद के ज़रिए,
मैं भेजूँगी पैग़ाम तुम्हें,
इस बहती हुई हवा के ज़रिए,
साथ रहेंगे सोच में दोनो,
नाज़ुक नाज़ुक यादों में,
मैं कहूँगी मुझको एक मिला था, पागल,
जिसने ज़िंदगी सिखायी थी,
तुम कहना सबसे, एक ज़िद्दी पड़ोसन, 
अपने घर भी आयी थी|
चलो बहुत हुआ, अब चुप रहूँगी,
चुप्पी में मज़मून है ज़्यादा,
तुम जैसा बनना, कहूँगी सबको, 
बस इतना ही मेरा वादा,
इससे ज़्यादा कहूँगी कुछ तो फूट पड़ेगी रुलायी भी,
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर,
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी | a Poem from kafir may fav lines
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर,
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी |
जीत मिली हम दोनो को बस, बस आँसू की कमाई थी | 
तुम पंछी थे और मैं थी मछली,
हम दोनो की अलग थी दुनिया,
अलग सुबह और अलग जहाँ |
सब कहते थे हम दोनों का,
इस दुनिया में मेल कहाँ,
पर भूल नहीं पाऊँगी वो लम्हा,
जब तुमने दिल की धड़कने सुनायी थी | 
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर, 
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी ।
ये बिछड़ना मिलना ये तो शायद मुहब्बत है,
अपने प्यार को वो दे देना,
जिसकी उसे ज़रूरत है, 
हम दोनो थे क़ैद कहीं,
अपनी समझ की सलाखों में,
तुमने ऐसा रिहा किया,
ख़ुद आज़ादी शर्मायी थी;
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर, 
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी | 
मिलेंगे हम ये वादा है ,
रोज़ रात को चाँद के ज़रिए,
मैं भेजूँगी पैग़ाम तुम्हें,
इस बहती हुई हवा के ज़रिए,
साथ रहेंगे सोच में दोनो,
नाज़ुक नाज़ुक यादों में,
मैं कहूँगी मुझको एक मिला था, पागल,
जिसने ज़िंदगी सिखायी थी,
तुम कहना सबसे, एक ज़िद्दी पड़ोसन, 
अपने घर भी आयी थी|
चलो बहुत हुआ, अब चुप रहूँगी,
चुप्पी में मज़मून है ज़्यादा,
तुम जैसा बनना, कहूँगी सबको, 
बस इतना ही मेरा वादा,
इससे ज़्यादा कहूँगी कुछ तो फूट पड़ेगी रुलायी भी,
लोग लड़ते हैं मिलने की ख़ातिर,
पर अपनी तो बिछड़ जाने की लड़ाई थी | a Poem from kafir may fav lines
rishulatwal5602

Rishu latwal

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