वो भी सुकुवार पैदा हुआ ज़मीन पर लोटकर वो चीज़ो की ख़ातिर जिद कर के अपने होने का एहसास कराता है जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है ध्यान माँ से पिता की ओर भी जाने लगा है पिता की मज़बूरियों ने उसे ज़िम्मेदारी का अर्थ सिखाया है,घर की ख़ातिर घर से निकलने को है मजबूर सोचता है कोई तो ठौर मिले लेकिन कुछ अपने जो अनजाने से है उनसे सीख रहा है वो चालाकियाँ दुनिया से उसने सीखा है जुरअत अपने ख़्वाबों के सहारे वो निकला स्कूल से कॉलेज तक कॉलेज से नौकरी की तलाश में वो भी रोता है, वो भी डरता है मिज़ाज़ से बेतरतीब और अक्खड़ वो आज़कल ज़माने की बदतमीज़ी भी सहता है मानो अंतर्मन में सिसकना ही नियति हो चौकठ दर चौकठ अस्तित्व तलाशते उस लड़के से मुझें घोर सहानुभूति है, उसकी यात्रा मुझें अपनी सी लगती है! कोई तो ठौर मिले(कविता) वो भी सुकुवार पैदा हुआ ज़मीन पर लोटकर वो चीज़ो के ख़ातिर जिद कर कर के अपने होने का एहसास कराता है जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है