" तरुणाई जीवन पथ पर " (अनुशीर्षक में) "शून्य की ओर एक कदम: पथ - पथिक और उसकी यात्रा " एक जज्बाती यौवन, मुट्ठीभर सामर्थ्य, नश्वर जीवन के अनन्त स्वप्न, अन्तः एवं बाह्य प्रस्थिति प्रदर्श के अनुरूप पारिवारिक एवं सामाजिक अवहेलनायें और उस पर हमारा स्वयमेव संघर्ष। आयुर्वस्था का एक एेसा रोमांचक मोड़ जहाँ विश्वास का अविश्वास से, प्रेम का त्याग से, भाग्य का कर्म से, जय की पराजय से और संज्ञेय की अज्ञेय से पाताल तोड़ अंतर्निहित जल किये जाने का द्वण्द चलता रहता है।अपरिग्रह, संयम एवं त्याग जैसे जीवन मूल्य जहाँ अपरिहार्य हो जाते हैं, वहीं अधिसंख्य निजी महत्त्वाकांक्षायें बलिदान होने का मार्ग अपनाने लगती हैं।सामंजस्य व मध्यस्थता विनम्रता के भँवर अनायास ही गोते लगाने को अग्रसर हो जाती है। भविष्य श्रान्तिमेधा की उपस्थिति में बसन्त की अगवानी करने को लालायित हो उठता है परन्तु पतझड़ कालीन ये इच्छायें लक्ष्यपूर्ति की कुण्ठाओं में नकारात्मकता व सकारात्मकता के मध्य अन्तर्द्वण्दों में विचरण करने को भी विवश रहती है।यथास्थिति भविष्य वर्तमान को इस भाँति उद्वेलित करता है कि जैसे किसी रासायनिक अभिकर्मक में कोई उत्प्रेरक भूचाल मचा रहा हो।परन्तु निष्कर्ष वानर प्रयास ही अवलोकित होता है। हो भी क्यों न ?आखिर सामाजिक उपांगों का भी तो एेसा नीरस व व्यंग्योक्तिक परिमण्डल अनावरित जो है।तृष्णा व क्षुधा युक्त दुराकांक्षिक ईर्ष्या प्रवृत्ति में प्रवृत्त प्रतिस्पर्धात्मक संवेदनाओं ने मानवता संस्कृति सम्बन्धन श्रेष्ठ-श्रेणी संस्तर विचारों, मान मर्यादाओं के सुआचरणों व अन्यान्न कतिपय अपनत्व योज्य कारकों के तर्पण में मरुत वेग से पश्चिमानुकरण के छद्मपाश में आकर्षित होकर स्व श्रेष्ठ स्वत्व सर्व के दैवीय मूल्यों का अनवरत हनन एवं अस्वीकरण किया है, जिससे अलगाव, अपरिचयन, अनभिज्ञता, अन्तर्मुखन, एकाकीयता इत्यादि ने अपने आप का अप्रयोज्य बहुरुपों में प्रवर्तन अधिकारों से स्थरीकरण का आक्षेप करार किया है। अतैव ऐसे विशिष्टतम् आनुषंगिक परिस्थितियों में एक दुर्गम पथ, एक दुर्जेय मंजिल और एक अनभिज्ञ पथिक जब एकल रश्मि विश्वास के संग अंगविक्षेप की आहट से सरोकार होते हुये भी पग प्रयाण करता है तो अवरोधिकाओं का एक विशिष्ट संजाल उसे अपनी दुराकाँक्षाओं ग्रास बनाने को भी लालायित हो उठता है। ये व्यक्तिगत, समष्टिगत अथवा किसी अन्य सामाजिक ढाँचे के नरभक्षी नागफनी जैसे होते हैं, जिन्हें स्वत्तिरेक अन्य सभी उच्चावच योजक भूस्पर्शक सीढ़ियों का कद ओछा ही प्रतीत होता है।ज्यों गिरि श्रृंखलायें श्रृंगों एवं गर्तों की सतत् अनुक्रमणिकाओं में गुंथी हैं उसी भाँति असततीय उतारों चढ़ाओं में निरन्तर पग अग्रगमन करते रहते हैं। कर्म और प्रतिफल जहाँ मानसिक उलझनों का पर्याय बनने लगते हैं वहीं कदम और निगाहें स्थिरता के अन्वेषण का उपक्रम करने को उद्यत हो जाती हैं। एकान्तिकता कहीं दूर किसी शान्ति विपश्यना में स्वच्छन्द कल्पनाओं का सर्वांगिक दृष्टिकोणों में सौचित्य श्रृंगारों का वरण कर रही होती हैं। और पथिक भी विषमणिका के मलयांचल से लक्ष्य संसाध्यन को अनन्त दूरी की राहों में अकेला ही मानसिक कार्मिक वाचिक विक्षेपों को सहवर्ती अवलम्ब मानकर पग पलायन को अनवरतता प्रदान कर रहा होता है । हे राम..! यह पथिक और इसकी यात्रा........... न जाने किस संगमपथ को प्रारब्धाधीन है। #yqlife #strugglesoflife #social #yqhindi #journey #life #हरिगोविन्दविचारश्रृंखला