बदलता इंसान इंसान अब वो इंसान न रहा, हर तरफ फ़रेब है ईमान न रहा। जी रहा है इंसान खुदगर्ज होकर इतना, रिश्तों की बुनियाद को है एक दिन मिटना। कुछ बचे रिश्ते तो हैं मगर उसमें जान न रहा, इंसान अब वो इंसान न रहा। अर्थ पिशाच समाज में लूट मची है चहुँ ओर, दौलत की मैराथन में खूब लगी है होड़। शरीफ़ों का जीना अब आसान न रहा, इंसान अब वो इंसान न रहा। छल, कपट, ईर्ष्या ने हृदय में घर बना लिया है, सबने दौलत को ही हमसफ़र बना लिया है। भले और बुरे का अब पहचान न रहा, इंसान अब वो इंसान न रहा। खून ही खून का खून कर रहा है, स्वर्ग सी धरती का सुकून चर रहा है। लोगों के लबों पर 'विश्वासी' मुस्कान न रहा, इंसान अब वो इंसान न रहा। दिनांक - 23/06/2015 #maatribhasha.com #विश्वासी