नदी और स्त्री दोनों की सहनशीलता का जग में नहीं कोई सानी। दोनों की ही पल पल परीक्षा होती पर दोनों ही निरंतर बहती रहती। दोनों ही होती शांत हृदय कोमल सी हंसकर सब कुछ सहती रहती। आती गर कोई भी विपदा दोनों ही विकराल रूप धारण कर लेती। समय-समय पर शक्ति दिखाती अपने होने का एहसास कराती। दोनों ही होती हैं भावों से भरी धरा पर ममता और धैर्य की मूरत। दोनों है सृष्टि की पालन हारी दोनों की ही धरा को होती है जरूरत। जरूरत पर पूजी जाती हैं बाद में दोनों ही उपेक्षित कर दी हैं जाती। 👉 ये हमारे द्वारा आयोजित प्रतियोगिता संख्या - 17. है, आप सब को दिए गए शीर्षक के साथ Collab करना है..! 👉 आप अपनी रचनाओं को आठ पंक्तियों (8) में लिखें..! 👉Collab करने के बाद Comment box में Done जरूर लिखें,और Comment box में अनुचित शब्दों का प्रयोग न करें..! 👉 प्रतियोगिता में भाग लेने की अंतिम समय सीमा कल सुबह 11 बजे तक की है..!