मेरी उल्फत की दास्तां झूठ का फंदा लगा कर चल रहा हूं कैसे कहूं मैं खुद से ही, खुद को छल रहा हूं हूं मगरूर चाहत में, नहीं मालूम मुझे पड़ रहे हैं हर तरफ, इश्क में लाले मुझे वो मुझको क्या समझता,क्या है मुझको मानता क्या कहूं वक्ते वफ़ा, मैं खुद भी न खुद को जानता उलझा हुआ हूं आज फिर मैं,ले के दिल ज़ख्मी बड़ा उसकी क्या गुरबत है मिश्रा, जो दर्द का सैलाब उमड़ा पड़ा पं अश्वनी कुमार मिश्रा