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#OpenPoetry जो कह न सकी वो कहती हूँ यादों की दरिया

#OpenPoetry जो कह न सकी वो कहती हूँ
यादों की दरिया में बहती हूँ
जो अधरों से बतला न पाई
उसे कलम सहारे सब कहती हूँ

जब किलकारी प्रथम गूंजी मेरी
तब बाबा छुप छुप कर रोए थे
न जाने कैसा हे भगवन ! वो
पाप का अंकुर घर मे बोए थे

ऐसा बोल खुद को ही कोष रहे थे
अम्मा सँग कर वो अफ़सोस रहे थे
बेटी होना दुर्भाग्य बोलकर वो
पल - पल मुझको ही दोष रहे थे

क्या बतलाऊँ हाल मैं अब उनको
रो-रो कर बस चुप रह जाती हूँ
अम्मा बाबा  का प्रेम पाने को
मैं तो हर पल तरस सी जाती हूँ

अहो! दुर्भाग्य मेरा है या उनका
इस मंथन से निकल नही पाती हूँ
बेटी बन धरा पर आकर मै
किसी को भी नही सुहाती हूँ

हाल-ए-दर्द सुनाऊँ किसको
सब बेटी के जैसे भक्षक है
न बन पाया यहां इंसान कोई 
न बन पाया कोई अब रक्षक है

नियत खोटी होती जा रही
सबकी दिन दशा एक जैसी है
न है अपना कोई इस जग में
बेटी ही स्वयं की बस हितैसी है


अंजली श्रीवास्तव
#OpenPoetry जो कह न सकी वो कहती हूँ
यादों की दरिया में बहती हूँ
जो अधरों से बतला न पाई
उसे कलम सहारे सब कहती हूँ

जब किलकारी प्रथम गूंजी मेरी
तब बाबा छुप छुप कर रोए थे
न जाने कैसा हे भगवन ! वो
पाप का अंकुर घर मे बोए थे

ऐसा बोल खुद को ही कोष रहे थे
अम्मा सँग कर वो अफ़सोस रहे थे
बेटी होना दुर्भाग्य बोलकर वो
पल - पल मुझको ही दोष रहे थे

क्या बतलाऊँ हाल मैं अब उनको
रो-रो कर बस चुप रह जाती हूँ
अम्मा बाबा  का प्रेम पाने को
मैं तो हर पल तरस सी जाती हूँ

अहो! दुर्भाग्य मेरा है या उनका
इस मंथन से निकल नही पाती हूँ
बेटी बन धरा पर आकर मै
किसी को भी नही सुहाती हूँ

हाल-ए-दर्द सुनाऊँ किसको
सब बेटी के जैसे भक्षक है
न बन पाया यहां इंसान कोई 
न बन पाया कोई अब रक्षक है

नियत खोटी होती जा रही
सबकी दिन दशा एक जैसी है
न है अपना कोई इस जग में
बेटी ही स्वयं की बस हितैसी है


अंजली श्रीवास्तव