मेरे दादा जी दादा होते होंगे आज,हमारे तो बासा थे,घर मे सबसे ज्यादा सहानुभूति हमारे दर्द से कोई रखता तो वो थे बासा, खाने में सब्जी मनपसदं नही बनती(वास्तव में 50 से 80 प्रतिशत सब्जियां मन को पसंद थी ही नहीं) या तीखी बन गई होती तो घर में बाकि सब लोग तो बोलते ज्यादा नखरे मत कर,जो बना आया चुपचाप खा ले लेकिन अपने को तो नखरे ही करने होते थे, उतर आते एक आध घंटे की भूख हड़ताल पे,लेकिन बासा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की तरह केस अपने हाथ मे लेते,सबको लाइन हाजिर करते और हमें दानेदार शुद्ध देसी घी में शक्कर डलवा कर खाना खिलवा कर ही दम लेते। बसों में उस समय भाड़ा 25 पैसा या इतना ही कुछ लगता था, बासा इतना भाव ताव करते कंडक्टर से कि हम पोतों को डर लगता कहीं बस वाला बीच रास्ते उतार ना दे और यात्रा अधूरी ही न रह जाए। शाम को पान मंगवाते,50 पैसे से लाना शुरू किया था और हाईएस्ट 75 पैसे का पान लाया हूँ बासा के लिए,उस समय जो भी पोता पोती हाजिर होता उसको पान का छोटा टुकड़ा जिसमें एक सुपारी का टुकड़ा,क्या वट से खाते थे वो भी हम लोग.... चातुर्मास के रविवार को हम बच्चे लोगों से दया करवाते और मिश्री मावे,इमरती और गुलाबजामुन के चक्कर मे शाम तक उपाश्रय में फिट करके 5-10 सामायिक करवा देते, जैन धार्मिक शिविर लगवाना,दया करवाना,मारासा के दर्शनार्थ आये लोगों को घर लाना,परिचय मनुहार..कई लोगों को हर साल कपड़े गिफ्ट करना, बोली इतनी "ऊँची" की मेरे नानाजी को भी नाज़ था... एक बार प्राइमरी स्कूल में पीने के पानी का किसी ने ताना मारा तो बासा ने स्कूल में प्याऊ ही बनवा दिया और ऐसे काम में उनको नाम नही चाहिए होता था।