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एक गांव है शायद शहर! जो मेरे ज़हन में कुछ यूं बिखर

एक गांव है
शायद शहर!
जो मेरे ज़हन में कुछ यूं बिखरा हुआ है, 
जैसे किसी ने किताबों में उढ़ेल दी हो स्याह लब्जों के,
संकरी गलियों में घूमते हुए जूतों की धमक,
बजती है कानों में चीर कर सारा सन्नाटा, 
डहरों में किनारों पर खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी
काले कोट पहनकर रात करती साजिशें,
उड़ती हैं,बात और कई दफ़न हो जाती हैं,

यादों के तार चटख़ते हैं नसों में
ज़हन में किसी कोने में रखी एक नज़्म चीख रही हो जैसे,
दर्द की मुंतहा हो गई हो ,
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को!
चूल्हे जलते हैं तो अब धुएँ में दरख्तों के जलने की वो खुशबू नहीं आती,
ना हो कोयले की गर्माहट में हवा में उड़ती कालिख,
अब लाल डब्बे में भरा ईंधन जलता है,
कहीं तुम्हारी यादें भी दबी किसी कोने में सुलग रही है इसी ईंधन की तरह,

खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं!
और पहचानने की कोशिश करते हैं!
एक घर है,
उसकी खिड़की से झांकता एक चुप्प,
एक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
गांव या शहर है कोई, 
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