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मंजिल को पाते पाते ना जाने कब घर का मेरे मेहमान हो

मंजिल को पाते पाते ना जाने कब घर का मेरे मेहमान हो गया हूं 
आ  गया हूं करीब शहर के गांव की गलियों का विरान हो गया हूं
चला था खुद को ढूंढने पर अब गुमशुदा सा मुकाम हो गया हूं 
ना जाने कब घर का मेरे मेहमान हो गया हूं

©Archit
  #मेहमान #