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विवेकवान व्यक्ति अपने स्वरूप एवं क्षमताओं को समझता

विवेकवान व्यक्ति अपने स्वरूप एवं
क्षमताओं को समझता है।
उसकी आंख सामने वाले
व्यक्ति पर नहीं होती।
अपने मन के दर्पण पर होती है।
मन कहेगा कि ‘प्रारब्धजन्य
इस परिस्थिति को
मौन रहकर टाल जाओ।
अभी तक तुमने भी
कुछ ऎसा नहीं किया कि
उसका क्रोध जाग्रत हो।
वह भी तो प्रारब्ध के कारण ही
आपके सामने आया है। 🌹🤓#good morning🤓🌹#Ramroop ji आपका बहुत बहुत आभार आपकी मंदिर वाली पोस्ट पर आपको मेरी प्रतिक्रिया की कुछ ज़्यादा ही उम्मीद लगी यह जानकर मुझे बहुत हर्ष हुआ इसलिए मेरे अर्जित ज्ञान का एक अंश "मंदिर" आपके साथ साझा करता हूँ ।आशा करता हूँ समाजिक संस्कारों से जुड़े मेरे इस संकलित ज्ञान स्तंभ को आप पढ़ेंगे ।
:🙏🌹🙏🌹🤓☕🙏💕🌹
बोलचाल की भाषा में छोटी मात्राओं का उच्चारण नहीं किया जाता। मन्दिर शब्द का उच्चारण मन्दर=मन+अन्दर हो जाता है। इसके दोनों अर्थ किए जा सकते हैं- मन जिसके अन्दर तथा मन के अन्दर। मन को मन्दिर भी कहा गया है। इसमें भी कोई रहता है। मन में कामना रहती है,चाहे जड़ की हो या चेतन की। मन में संस्कार रहते हैं,जो मूलत: जन्मकाल से पूर्व के होते हैं। चाहे पिछले जन्मों के,या गर्भकाल के। ये संस्कार ही कामना एवं कर्म की दिशा तय करते हैं।
🌹🙏🌹🤓🙏💕🙏🌹🤓
वैसा ही हमारा भविष्य बनता जाता है। तब कामना ही भविष्य विधाता बन जाती है। क्योंकि कामना भी ईश्वर ही पैदा करता है। हम तो पैदा नहीं कर सकते। कामना ही व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करती है। इसीलिए मन को दर्पण कहा जाता है। जीवन में प्रतिक्षण कोई न कोई संयोग बनता रहता है। कोई मिलता है,बिछुड़ता है।
🌹🙏🌹🤓🙏🌹🤓💕
बुरा या अच्छा लगता है। लोभ या ईष्र्या पैदा होती है। राग-द्वेष का अनुभव होता है। ये सारे भाव ही तो मन के स्वरूप को प्रतिबिम्बित करते हैं। ये प्रतिबिम्ब,सही अर्थो में,मेरी परीक्षा का प्रश्न-पत्र है। इनके माध्यम से ही हम अपने बदलाव का आकलन कर पाते हैं। मेरी साधना का प्रभाव जीवन में कितना हो पाया,मुझे पता चल जाता है।
🌹🌹🤓🌹🤓🤓🌹🙏💕
विवेकवान व्यक्ति अपने स्वरूप एवं
क्षमताओं को समझता है।
उसकी आंख सामने वाले
व्यक्ति पर नहीं होती।
अपने मन के दर्पण पर होती है।
मन कहेगा कि ‘प्रारब्धजन्य
इस परिस्थिति को
मौन रहकर टाल जाओ।
अभी तक तुमने भी
कुछ ऎसा नहीं किया कि
उसका क्रोध जाग्रत हो।
वह भी तो प्रारब्ध के कारण ही
आपके सामने आया है। 🌹🤓#good morning🤓🌹#Ramroop ji आपका बहुत बहुत आभार आपकी मंदिर वाली पोस्ट पर आपको मेरी प्रतिक्रिया की कुछ ज़्यादा ही उम्मीद लगी यह जानकर मुझे बहुत हर्ष हुआ इसलिए मेरे अर्जित ज्ञान का एक अंश "मंदिर" आपके साथ साझा करता हूँ ।आशा करता हूँ समाजिक संस्कारों से जुड़े मेरे इस संकलित ज्ञान स्तंभ को आप पढ़ेंगे ।
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बोलचाल की भाषा में छोटी मात्राओं का उच्चारण नहीं किया जाता। मन्दिर शब्द का उच्चारण मन्दर=मन+अन्दर हो जाता है। इसके दोनों अर्थ किए जा सकते हैं- मन जिसके अन्दर तथा मन के अन्दर। मन को मन्दिर भी कहा गया है। इसमें भी कोई रहता है। मन में कामना रहती है,चाहे जड़ की हो या चेतन की। मन में संस्कार रहते हैं,जो मूलत: जन्मकाल से पूर्व के होते हैं। चाहे पिछले जन्मों के,या गर्भकाल के। ये संस्कार ही कामना एवं कर्म की दिशा तय करते हैं।
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वैसा ही हमारा भविष्य बनता जाता है। तब कामना ही भविष्य विधाता बन जाती है। क्योंकि कामना भी ईश्वर ही पैदा करता है। हम तो पैदा नहीं कर सकते। कामना ही व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करती है। इसीलिए मन को दर्पण कहा जाता है। जीवन में प्रतिक्षण कोई न कोई संयोग बनता रहता है। कोई मिलता है,बिछुड़ता है।
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बुरा या अच्छा लगता है। लोभ या ईष्र्या पैदा होती है। राग-द्वेष का अनुभव होता है। ये सारे भाव ही तो मन के स्वरूप को प्रतिबिम्बित करते हैं। ये प्रतिबिम्ब,सही अर्थो में,मेरी परीक्षा का प्रश्न-पत्र है। इनके माध्यम से ही हम अपने बदलाव का आकलन कर पाते हैं। मेरी साधना का प्रभाव जीवन में कितना हो पाया,मुझे पता चल जाता है।
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