कोई अहमियत समझ रहा, कोई ज़मीर खो रहा है। बरसने के बाद क़हर, कोई हँस रहा कोई रो रहा है। साँसों की इस जद्दोजहद में भी छीन रहें हैं पाई-पाई, जागके माँग रहा कोई दुआ, कोई लूट के सो रहा है। अपनी ज़िंदगी, ज़िंदगी! औरों की जैसे खिलौना है, कर रहा कोई मदद, कोई राहों में काँटे बो रहा है। उन्हें किसी की फ़िक्र कहाँ, जिनके भरे पड़े भंडार, फेंक रहा कोई यूँही, कोई भूख का बोझ ढो रहा है। क़ाबिल नहीं है गर, कम से कम दुआ तो कर 'धुन', रब की बात रब जाने दुनिया में यह क्यों हो रहा है। नमस्कार लेखकों🌺 Collab करें हमारे इस #RzPoWriMoH15 के साथ और "कोई हँस रहा है, कोई रो रहा है" पर कविता लिखें। (मूल कविता अकबर इलाहबादी द्वारा) • समय सीमा : 24 घंटे • कैपशन में संक्षिप्त विस्तारण करने की अनुमति है।