मेरे मन की मुंडेर पर बैठा एक अतृप्त काला कौआ मुंडी घुमाकर घुमाकर दुनिया में फैली इच्छाओं को उत्सुकता से देखता है कभी दूर तो कभी पास से कभी चोंच मार चख लेता है जिंदगी के खट्टे-मीठे फल कड़वे फलों के स्वाद डरा देते हैं भीतर तक तब कुछ दिन उड़ाने भरता है खाली पेट और फिर से ढूंढने लगता है भूखा कौआ कोई अनजान स्वादिष्ट फल परेशान सा न जाने किसे बुलाता रहता है मैं भागी चली आती हूं उसकी हर पुकार पर पकड़ा देती हूं उसकी कठोर चोंच में एक इच्छा सदियां बीत गई इसे मन भर ख्वाहिशों की चुपड़ी रोटी देते पर आज तलक न इसका मन भरा न पेट। मेरे मन की मुंडेर पर बैठा एक अतृप्त काला कौआ मुंडी घुमाकर घुमाकर दुनिया में फैली इच्छाओं को उत्सुकता से देखता है कभी दूर तो कभी पास से