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नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज की नाव ही बचपन था । ज

नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज की नाव ही बचपन था ।
जिसके नीचे खेले वो, पीपल की छाँव ही बचपन था।

कभी झील सा मौन कभी, लहरों सा तूफानी बचपन,
कभी - कभी था शिष्ट कभी, करता था मनमानी बचपन।
गिल्ली-डंडा, दौड़-पकड़, खोखो के खेल निराले थे,
साथ मेरे जो खेले मेरे, यार बड़े मतवाले थे।
जिसे छुपाते थे माता से, ऐसा घाव ही बचपन था ।
नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज़ की नाव ही बचपन था।

पापा के उन कंधों की तो, बात ही थी कुछ खास।
बैठ कभी जिन पर यारों, हम छूते थे आकाश ।
मां की रोटी के आगे सब, फीके थे पकवान ।
सचमुच मेरा बचपन था, इस यौवन से धनवान।
जाति, धर्म के भेद बिना का, प्रेम भाव ही बचपन था।
नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज़ की नाव ही बचपन था।

बीत गया ये बचपन भी, यौवन भी हुआ अचेत,
हाथों से फिसली जाती है, जैसे कोई रेत।
बचपन का वो दौर जिगर, फिर ला सकता है कौन,
बचपन की यादों में खोकर, हो जाता हूं मौन।
गाय, खेत, खलिहानों वाला, अपना गाँव ही बचपन था,
नन्हे - मुन्ने हाथों में कागज़ की नाव ही बचपन था ।

©Manpreet Gurjar
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